प्राथमिक शिक्षा : अतीत और वर्तमान
भारत में प्राथमिक शिक्षा के बारे में चिंतन का काम निरंतर होता रहा है। गोपाल कृष्ण गोखले नें सबसे पहले “प्राथमिक शिक्षा सरकार की तरफ से” मुहैया करवाने की बात कही थी। राजा राम मोहन रॉय ने “अंग्रेजी शिक्षा देने और पश्चिम के ज्ञान को अपनाने की बात” दशकों पहले कही थी। इस दिशा में उनके प्रयासों के कारण उनको “आधुनिक भारत का निर्माता” कहा गया ।
बाद में गांधी ने गोखले से मिले अनुभवों और अपनी समझ को शामिल करते हुए ” नई तालीम ” के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाने और आस-पास के परिवेश में जीने का कौशल विकसित करने में सक्षम शिक्षा देने की बात कही। ताकि सिद्धांत और व्यवहार का अंतर कम से कम हो सके। श्रम के महत्व को समाज में स्थापित किया जा सके।
बाद में गांधी ने गोखले से मिले अनुभवों और अपनी समझ को शामिल करते हुए ” नई तालीम ” के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाने और आस-पास के परिवेश में जीने का कौशल विकसित करने में सक्षम शिक्षा देने की बात कही। ताकि सिद्धांत और व्यवहार का अंतर कम से कम हो सके। श्रम के महत्व को समाज में स्थापित किया जा सके।
गिजूभाई बधेका नें प्राथमिक शिक्षा के बारे में बड़े विस्तार से सोचा और काम करने के दौरान हुए अनुभवों को लिखा। गिजूभाई की दिवास्वपन पुस्तक 1932 में छपी थी। जिसका बहुत बाद में हिन्दी और अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ। प्रोफेसर कृष्ण कुमार अपनी पुस्तक ” दीवार का इस्तेमाल और अन्य लेख” में लिखते हैं कि “ गिजूभाई नें भारत की प्राचीन कहानी परंपरा , लोकगीत व लोक कलाओं को स्कूल में स्थापित किया। उन्होनें भाषा सिखाने की प्राचीन पद्धति की रूढ़ि को तोड़ा। गिजूभाई स्कूल को समाज का लघु संस्करण नहीं समाज समझते थे। उनकी पद्धति में घर, स्कूल और पड़ोस की दीवारों का यही उपयोग था कि बच्चे उन्हें फांदना सीखें।”
मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले में काम करने वाली संस्था ” आधारशिला “वैकल्पिक शिक्षा की दिशा में अपना योगदान दे रही है। वहां के आदिवासी बच्चों को ऐसी शिक्षा देने की कोशिश हो रही है ताकि वे अपनी आजीविक खुद कमाने में सक्षम हो सकें। बच्चे आर्गैनिक फार्मिंग, स्थानीय इतिहास व ज्ञान को लिपिबद्ध करने का काम भी बच्चे कर रहे हैं। इसके साथ-साथ बच्चों को कला, लोक नृत्य व लोक संगीत सीखने को प्रोत्साहित किया जाता है। बच्चे एक दूसरे से सीखते हैं (जिसे वर्तमान में “ पीयर लर्निंग ” के कॉन्सेप्ट के नाम से जाना जाता है।)
स्कूलों की बेहतरी लिए शिक्षा व्यवस्था की संरचना में “ सहभागिता और सहयोग की भावना ” का विकसित होना जरुरी है। तभी हम व्यवस्था में दीर्घकालिक बदलाव की तमाम परियोजनाओं को अमलीजामा पहना सकते हैं। इसके लिए शिक्षकों के साथ-साथ समुदाय के लोगों को भी अपना योगदान देना होगा। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर “स्कूल प्रबंधन समिति” का गठन किया गया। ताकि हम 2009 से लागू शिक्षा के अधिकार कानून का वास्तविक लाभ ले सकें।
राजस्थान में नवाचारों के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा में व्याप्त यथास्थति को तोड़ने का प्रयास जारी है। ताकि बच्चों को स्कूल में घर जैसा माहौल मिले। अध्यापक उनसे प्यार करें। वे बच्चों को स्तरीय शिक्षा दें ताकि वे खुद से पास हों। ताकि हम उनको पास-फेल करने वाली बहस से आगे बढ़ सकें। आज से पूरे राजस्थान में स्कूल जाने योग्य (6 से 14 साल तक के) बच्चों के शत प्रतिशत नामांकन के लिए उत्सव प्रारंभ हो रहा है। हम अपने घर और गांव से बच्चों को स्कूल की ओर जाने में सहयोग दे ताकि वे अपना भविष्य बना सकें।
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