Trending

स्कूल डेज़ः पहली से आठवीं तक बच्चों ने क्या सीखा?

भारत में शिक्षा का अधिकार क़ानून एक अप्रैल 2010 से लागू किया गया। इसे पाँच साल पूरे हो गए हैं। इसके तहत 6-14 साल तक की उम्र के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का प्रावधान किया गया है।

भारत में शिक्षा का अधिकार क़ानून एक अप्रैल 2010 से लागू किया गया।

स्कूल क्या है ? एक ऐसी जगह जहाँ पर शिक्षक बच्चों को पढ़ाते हैं। बच्चों से शिक्षक भी सीखते हैं। अपने सैद्धांतिक ज्ञान और समझ को व्यावहारिक अनुभवों से पुख़्ता बनाते हैं। स्कूल में बच्चे पढ़ना-लिखना सीखते हैं। जीवन के लिए जरूरी कौशल जैसे लोगों के साथ रिश्ते बनाना, संवाद करना और विभिन्न परिस्थितियों में फ़ैसला लेना सीखते हैं।

लोगों और ख़ुद का नेतृत्व करना सीखते हैं। एक दिन स्कूल में बच्चों से बात हो रही थी कि आपने पिछले आठ सालों के दौरान आपने स्कूल में क्या-क्या सीखा? बच्चों को किस क्लास में क्या सीखना है? इसकी एक पहले से निर्धारित पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम होता है। जिसको आधार मानते हुए बच्चों के लिए पाठ्यपुस्तकें लिखी जाती हैं, मगर केवल पाठ्यपुस्तकों से ही बच्चे सीखते हों, ऐसी बात नहीं है।

आठ सालों के सफ़र पर एक नजर

पिछले आठ सालों के सफ़र वाले सवाल ने पूरी क्लास को यादों के फ्लैशबैक में झांकने का एक मौका दे दिया। बच्चे बता रहे थे, “उन्होंने समय पर स्कूल आना और वक़्त की कीमत समझना सीखा।” इस स्कूल में साढ़े दस के पहले ही अधिकांश बच्चे स्कूल आ जाते हैं। उन्होंने आगे कहा, ” हमने प्रार्थना करना, एक से हजार तक की गिनती, पहाड़े, गणित के सवाल हल करना सीखा। अंग्रेजी में एबीसीडी, मीनिंग याद करना और कच्चा-पक्का अंग्रेजी पढ़ना जान पाये। इसके अलावा हिन्दी में अ,आ,इ,ई..से ज्ञ तक के सारे अक्षरों को पहचानना, लिखना, बोलना और हिन्दी में पाठ पढ़ना सीखा। हिन्दी में बात करना, बड़ों से कैसे अपनी बात कहनी है, सवालों के जवाब लिखना,विलोम ,पर्यायवाची, मुहावरे आदि जाने।”

e944c-dscn7023उन्होंने सबसे रोचक बात कही, “हमने शोर मचाना, चिल्लाना, नाटक करना और अपनी धुन में मस्त रहना और नहीं सुनना भी सीखा।” जिस साक्षरता की बात जनगणना के समय होती है, उसका भी जिक्र एक बच्चे के जवाब में मिला। इस बच्चे ने बताया, ” हमने अपना नाम लिखना सीखा।” यानी ये बच्चे अपना नाम लिखने को कहा जाये तो किसी और का नाम नहीं लिखेंगे। नाम वाली साक्षरता का शायद यही सर्वोपरि उद्देश्य है।”

बच्चों ने बताया, “हमसे स्कूल में ढेर सारी कहानियां और कविताएं सुनी गईं। इस बहाने हमने इनके बारे में बतान सीखा।” सीखने वाली लिस्ट में रामायण और महाभारत की कथाओं का भी जिक्र था। उन्होंने रटने और समझने वाले संप्रत्यय का भी जिक्र करते हुए कहा, “हमने पाठ को रटकर और समझकर याद करना भी सीखा।”

प्यार और परवाह की अदा

दस साल बाद मैं बड़ी सी कार खरीदुंगा...

स्कूल का एक दृश्य, जिसमें बच्चे स्कूल आते हुए दिख रहे हैं।

इसके अलावा हिन्दी व्याकरण और संस्कृत के श्लोकों का भी जिक्र बच्चों ने किया। इसके अलावा गाली देना, दादागीरी करना और झगड़ा करना भी सीखा। तो इस बारे में बच्चों से बात हुई कि कुछ तो घर गांव में सीखा होगा। स्कूल तो केवल उसके दोहरान और रिहर्सल का मंच भर रहा है। तो इस बात से उन्होंने सहमति जाहिर करी।

उन्होनें एक काबिल-ए-गौर बात कही कि प्यार करना और किसी को प्यार से समझाना सीखा। इन बातों का स्कूल में बरामद होने वाले लव लेटर्स से कितना रिश्ता है, जो उनके पूर्व के सालों में पढ़े सालों में सातवीं-आठवीं क्लास के बच्चों ने लिखे थे। बता पाना मुश्किल है। लेकिन प्यार और परवाह की अदा सीखने वाली बात तो ग़ौर करने लायक है।

उन्होंने आगे बताया कि कबड्डी, खो-खो, और बैडमिंटन खेलने का मौका स्कूल में मिला। इसके साथ-साथ कक्षा में झाड़ू लगाना, स्कूल की साफ-सफाई का ध्यान रखना, पौधे लगाना, पौधों की देखभाल करना, पानी देने का काम भी किया। बच्चों ने सक्रियता से स्कूल की जिस तरह की गतिविधियों में हिस्सा लिया था।

जैसे कम्पयुटर खोलना और इंटरनेट पर कुछ खोजना। एक बार हमने लैपटाप पर इंटरनेट चलाकर देखा और कुछ तस्वीरें देखीं। स्कूल के स्थानीय जगह के आसपास के नामों को नेट पर तलाशा। बीच-बीच में हँसाने वाली बातों का जिक्र भी आया जैसे स्कूल से बस्ता लेकर भागना, एक दूसरे की शिकायत करना इत्यादि।’

कुछ बच्चों ने तो कुछ नहीं सीखा’

अपनी बातचीत के दौरान सर नीचे करके एक बच्चा पाठ याद कर रहा था। उसकी तरफ इशारा करके मैनें कहा,”कक्षा में कुछ लोग रो रहे हैं कि कुछ साथियों ने तो कुछ नहीं सीखा।”  इस बात पर क्लास के सारे बच्चे हँस रहे थे और वह बच्चा सफाई दे रहा था कि मैं रो नहीं रहा हूँ पाठ याद कर रहा हूं।

इसके बाद बच्चों से होने वाली बातचीत नें एक और दिशा पकड़ी कि मान लीजिए कि दस-बीस साल बाद आपके गांव में एक स्कूल खुलता है। ( तब तक आपकी शादी हो चुकी होगी और आपके छोटे-छोटे बच्चे भी हो जाएंगे। इसकी कल्पना करके सारे बच्चे खुश हो रहे थे। )

क्या सिखाया जायेगा जानना जरूरी है

आप उस स्कूल में अपने बच्चे का एडमीशन करवाने के लिए जाते हैं, उसके हेडमास्टर आपको बताते हैं कि मैं जो सिखाता हूं, उसकी एक लिस्ट लगी हुई है। वह लिस्ट आपकी बताई बातों से हू-ब-हू मिलती है। तो क्या आप अपने बच्चे का एडमीशन वहां करवाएंगे ? बच्चों को एडमीशन तो करवाना पड़ेगा। अब तो शिक्षा का अधिकार कानून भी आ गया है कि छः से चौदह साल तक के बच्चों को तो स्कूल में पढ़ाना ही है।

चाहे उनका एडमीशन सरकारी स्कूल में हो या फिर प्रायवेट स्कूल में। आप उनको घर पर तो रोक भी नहीं सकते। उनको काम और मजदूरी के लिए मजबूर नहीं कर सकते। इस बात से उनको बच्चों का एडमीशन करवाने के फैसले की घड़ी के करीब लाना था। ताकि वे भविष्य की निर्णय प्रक्रिया के बारे में कल्पना कर सकें और अनुमान लगा सकें।

तैतीस बच्चों की कक्षा में से तेरह नें सीधा जवाब दिया कि वहां अपने बच्चे का एडमीशन नहीं करवाएंगे। क्योंकि उनकी अपेक्षाओं के अनुसार स्कूल का पाठ्यक्रम सीमित सा लग रहा था। वे अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलवाना चाहते हैं। खुद से बेहतर शिक्षा की बात तो उनके मन में काफी साफ थी। जबकि बाकी बचे हुए सारे लोगों (बीस)  में साठ फीसदी लोग अनिर्णय की स्थिति में थे।

उम्मीद के रौशन दिये

चालीस का कहना था कि हाँ वहां एडमीशन करवाएंगे। फिर मैनें पूछा कि अगर वहां पर एक खाली लिस्ट लगी हो, जिस पर आप अपनी अपेक्षाएं लिख सकतें हैं तो क्या अच्छा रहेगा कुछ बच्चों को यह सुझाव पसंद आया। इसको मैंने एक बच्चे की कम्पयुटर सीखने की जिज्ञासा से जोड़ते हुए बात आगे बढ़ाई। अगर आप अपने बच्चे का एडमीशन स्कूल में करवाते हैं तो यह तो पक्का देखेंगे कि उस स्कूल में कम्प्यूटर सिखाया जाता है कि नहीं। तब तक तो अपना गांव भी सारे बदलावों से गुजर रहा होगा। यहां भी चीजें परिवर्तित हो रही होंगी।

एक बात तो बिल्कुल साफ है कि बच्चे अपने बच्चों के लिए तो बहतर स्कूल चाहते हैं। इस बातचीत से भविष्य की तस्वीर साफ होती दिख रही है कि हमें बदलाव के लिए तैयार रहना चाहिए। भविष्य की किसी तैयारी के सवाल को शिक्षा में हो रहे प्रयोगों, बदलावों और नवाचारों से काट कर नहीं देखा जा सकता। इसके साथ-साथ सामाजिक बदलावों के कारण उत्पन्न हो रहे सवालों का जवाब भी हमें मिलकर खोजना होगा। इस सफर पर आगे बढ़कर ही हम बेहतर समाज के नि्र्माण के सपनों के छोटे-छोटे दीयों की टिमटिमाहट को रौशन करने में अपना योगदान दे सकते हैं।

इस लेख के बारे में अपनी टिप्पणी लिखें

%d bloggers like this: