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भाषा शिक्षण का सबसे सही तरीका क्या है?

होल लैंग्वेज अप्रोच में भाषा सीखने की स्वाभिक प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है। ताकि बच्चा बिना प्रतीकों में उलझे हुए प्रतीकों का अनुमान लगाना, पढ़ना, समझना और लिखना सीख सके। इसमें एक बच्चा कविता गाने से पढ़ने और समझने की दिशा में आगे बढ़ता है। वह शब्दों की ध्वनि के सहारे अनुमाल लगाने लगता है कि अमुक ध्वनि, अमुक अक्षर की होती है। इस तरह वह रटने के बोझ से भी मुक्त हो जाता है।


इसके विपरीत जब वह अक्षरों को बोलचाल की भाषा से अकेला करके और चित्रों के साथ जोड़कर समझता है तो उलझन में पड़ जाता है। यहां पर क अक्षर के प्रतीक के साथ कबूतर फेवीकोल के मजबूत जोड़ की तरह चिपक जाता है। जिसे सुधारने के लिए अध्यापक और अभिभावक दोनों को अपनी सीखाई बात को फिर से सुधारने की कोशिश करनी पड़ती है। क्योंकि क से कबूतर और ख से खरगोश समझने से लिखी हुई भाषा को पढ़ने का प्रवाह बाधित होता है। 

पढ़ने की रफ्तार को बढ़ाने के लिए कबूतर को उड़ाए बिना और खरगोशों को खेत में चरने के लिए छोड़ना ही पड़ता है। ताकि इस तरह के गलत अनुबंधन (अनुकूलन) से बच्चा स्वंतंत्र हो सके और भाषा के विस्तृत संसार में बेफिक्र विचरण कर सके। इतने विचार-विनिमय का उद्देश्य मात्र इतना है कि भाषा सिखाने की प्रक्रिया के प्रति सतर्कता और संवेदनशीलता बरतने की गुंजाइश को जगह दे सकें। जिसके अभाव में बच्चों के लिए भाषा सीखने की प्रक्रिया आनंद की वजह होने के विपरीत उलझन का सबब बन जाएगी। 

क्लास रूम में भाषा शिक्षण की प्रक्रिया को उनके परिवेश और पर्यावरण में सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया को विस्तृत दायरों में देखने की जरूरत है। अंत में समाज में बच्चा आम लोगों की तरह बोलना सीखता है। इसलिए भाषा शिक्षण की प्रक्रिया में बातचीत को विशेष महत्व मिलना चाहिए। ताकि भाषा सीखने की प्रक्रिया की संपूर्णता बनी रहे।  

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