आदिवासी अंचलः बच्चों के बेहतर भविष्य का सपना संजोते अभि्भावक

हम उनको बता रहे हैं कि समाज बदल गया है। दुनिया बदल रही है। हमें बच्चों को फेल करके डराना नहीं चाहिए। लेकिन बच्चे जैसे बड़े होते हैं। भयमुक्त वातावरण से गायब हुआ सारा भय वापस लौट आता है। बचपन की बेफिक्री किशोरावस्था के खौफ बनकर वापसी करती है। बच्चों को पढ़ने के लिए फेल होने का डर दिखाया जाता है। समाज में बदनामी और बाकी लोगों से पीछे रह जाने का खौफ घरवाले भी दिखाते हैं। दसवीं में पढ़ाने वाले गुरु जी, प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलों के बिगड़ते शैक्षिक माहौल को दोषी मानते हैं। वे कहते हैं कि अगर बच्चे का बेस नहीं मजबूत है तो हम क्या करें, हमारे हाथ में तो पाठ्यक्रम पूरा करना है। हम उनको पढ़ना-लिखना और एबीसीडी तो नहीं सिखा सकते। ऐसे माहौल में जब अध्यापकों का मानना है कि अगर प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता के साथ समझौता किया जाता है तो छात्रों को आगे की पढ़ाई के दौरान आत्मविश्वास की कमी, हीनता बोध और लोगों के सामने अपमानित होने जैसी तमाम स्थितियों से गुजरना पड़ता है। इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदारी लेगा ?
वर्तमान में धीरे-धीरे माहौल बदल रहा है। बच्चों के अंदर से अभिभावकों और अध्यापकों का डर निकल रहा है। वे किसी की सुनने को तैयार नहीं हैं। वे अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीना चाहते हैं। उनको किसी की रोक-टोक पसंद नहीं है। ऐसे हालतों में आदिवासी अंचल का तो पीछे जाना तय है। विकास की सारी बातें बेमानी हो जाएंगी। लेकिन इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। हमारे समाज के लोग नेताओं से पूछते हैं कि आप विधान सभा सत्र के दौरान क्षेत्र के विकास से जुड़ा कोई सवाल क्यों नहीं पूछते… तो वे खामोशी से किनारा कर लेते हैं। यहां के शिक्षक नें सामाजिक क्रियावर के दौरान हुए सम्मेलन का जिक्र करते हुए बताया कि वहां पर दस हजार से ज्यादा लोग जुटे हुए थे। इस अवसर पर लोगों ने आदिवासी अंचल के भविष्य से जुड़ी तमाम समस्याओं पर विचार-विमर्श किया।
एक शिक्षिका का तो साफ तौर पर मानना है कि क्रमोन्नत करने के आदेश के आगे वे विवश हैं। उनको पता है कि लंबे समय में यह बच्चे के हित के खिलाफ जाता है। अगर बच्चा किसी तरीके से दसवीं-बारहवीं पास भी कर लेते हैं तो उसका आगे के भविष्य अनिश्चित हो जाता है। उसे नौकरी और अन्य अवसरों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं का सामना तो करना पड़ेगा। उसमें कोई छूट तो मिलने से रही। अगर आरक्षण मिलता भी है तो उसका लाभ जागरूक अभिभावकों के बच्चों को मिलेगा, जो आदिवासी हैं। मदद के असली हकदारों का हक तो ऐसे भी मारा जाएगा।
इस क्षेत्र की तमाम स्कूलें सिंगल टीचर स्कूल हैं। जहां एक अध्यापक के भरोसे सारा स्कूल हैं। तो सड़क के किनारे की स्कूलों में प्राथमिक में चालीस-पचास बच्चों पर तीन-चार स्टॉफ है। तो उच्च प्राथमिक स्कूलों में दस-ग्यारह का स्टॉफ है। जबकि इंटीरियर के स्कूलों में चार-पांच अध्यापकों के भरोसे दो सौ -तीन सौ बच्चे पढाई कर रहे हैं। उनके भविष्य का क्या होगा…..सारे नियम कानून तो कागजों में बने हुए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ अलग ही नजारा है। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत छात्र-शिक्षक अनुपात संतुलित होना चाहिए। लेकिन वास्तविक स्थिति तो बहुत खराब है। कहीं शिक्षकों की भरमार है तो कहीं पर शिक्षकों का टोटा है।
बहुत-बहुत शुक्रिया।
बहुत-बहुत शुक्रिया।
सार्थक..
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