एजुकेशन लीडरशिपः प्रधानाध्यापकों में होता है बदलाव

प्रधानाध्यापक नेतृत्व विकास कार्यक्रम में काम करते हुए दो साल होने को हैं। प्रधानाध्यापकों में केवल नेतृत्व के गुण भरने भर से बदलाव हो जाएगा, इस बात पर ऐतबार करना काफी कठिन लगता था। लेकिन अपनी आंखों के सामने प्रधानाध्यापक को अपनी बात आत्मविश्वास के साथ रखते देखना। अपने किए हुए काम को सहज तरीके से बाकी लोगों को समझाने का अंदाज काफी अच्छा लगा। 
मेरे प्रधानाध्यापक जी को लोगों के सामने बोलने में झिझक होती थी। उनको लगता था कि वे बेहतर वक़्ता नहीं है। बोलने की प्रतिभा तो जन्मजात होती है। बचपन के सहपाठी तो शुरु से बेहतर बोलते चले आ रहे हैं। उनका मुकाबला करना तो अपने बस की बात नहीं है। लेकिन आज उन्हीं को अपने सहपाठी से सधे हुए अंदाज में बात करते देखना। उनसे अपने स्कूल के बारे में राय देने की गुजारिश करना। अपने यहां होने वाले कामों को समझाना खुशी से भर देने वाला अनुभव था। 
कुछ दिन पहले हमारे एक वरिष्ठ साथी कह रहे थे कि आपके प्रधानाध्यापक काम तो बढ़िया कर रहे हैं। लेकिन लोगों के सामने बोलने में संकोच करते हैं। उनकी लीडरशिप वाला पार्ट उनके व्यक्तित्व में नहीं दिखाई पड़ता है। रोल प्ले काफी बेहतर गतिविधि है व्यक्तित्व को निखारने की। इसके साथ-साथ अगर बच्चों के बारे में प्रधानाध्यापक की समझ साफ हो तो सोने पर सुहागा वाली स्थिति होती है। आज जब पुस्तकालय की बात हो रही थी तो कुछ प्रधानाध्यापकों नें कहा कि बच्चे तो किताबे फाड़ देंगे। वे तो किताबे चुरा ले जाएंगे। वे बाकी बच्चों के झोले से किताबें निकाल करके ले जाएंगे। 
तो बाकी प्रधानाध्यापकों नें उनके पूर्वाग्रह पर सवाल खड़े किए। वे बोले बच्चे किताब की चोरी नहीं करते। हमें उन पर भरोसा करना चाहिए। उनको अपने पसंद की किताबें चुनने का मौका देना चाहिए। किताबें खुली में रखनी चाहिए। हमें उनको किताबों से दोस्ती करने का मौका देना चाहिए। अगर उनकी दिलचस्पी किताबों में हो जाती है तो पढ़ने का कौशल तो वे सीख ही लेंगे। लेकिन सबसे पहले शब्दों, चित्रों और किताब नाम की वस्तु से बच्चों का संवाद होना बहुत जरुरी है। तभी बच्चों में किताब के प्रति लगाव पैदा करने के प्रयासों को आगे बढ़ाया जा सकता है। इस बदलाव के मूल में पिछले साल-छः महीनें में पढ़े गए लेखों, किताबों, स्टॉफ मीटिंग में संवाद की पारदर्शिता, सबको अपने विचार रखने की स्वतंत्रता का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। 
अध्यापकों के साथ निरंतर होने वाले संवाद से उनका शिक्षा, बालक, अभिभावक और समुदाय के बारे में बेहतर परिप्रेक्ष्य विकसित हुआ है। लेकिन औपचारिकता के प्रति चिपकाव की समस्या यथावत बनी हुई है। आदर्शवादी कथनों और वाक्यों के प्रति प्रेम और अनुशासन बनाए रखने के लिए डंडे का सहारा लेने की बात सपनकर लगता है कि सारा किया धरा बेकार है। बदलाव की पहल का हासिल कुछ भी नहीं है। लेकिन बदलाव प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। जिसको स्वीकार करना चाहिए। जिसको आगे ले जाने के विकल्प तलाशे जाने चाहिए। 

2 Comments

  1. kisike bole huye shabd to tum vaise ke vaise likhte ho…achha laga padhke……

  2. kisike bole huye shabd to tum vaise ke vaise likhte ho…achha laga padhke……

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