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देश का हालः स्कूल हैं बदहाल, शिक्षा बेहाल…

किसी क्षेत्र की वास्तविक स्थिति का जायजा वहाँ के स्कूल और अस्पतालों से चलता है. दिल्ली में अभी नर्सरी स्कूलों में एडमीशन को लेकर घमासान जारी है. यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने के बाद एक बार फिर से छोटे बच्चों के एडमीशन पर रोक लग गई है. इससे एक बात पता चलती है कि दिल्ली में जागरूकता का स्तर नर्सरी लेवल की गहराई को छूता है.

जबकि बाकी सारी जगहों और प्राथमिक स्तर से शिक्षा की बात शुरू होती है और उच्च शिक्षा के साथ रोज़गार की तलाश पर ख़त्म होती है. कल एक रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि बारहवीं तक की शिक्षा को मजबूत करने की जरूरत है ताकि प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए उच्च गुणवत्ता की शिक्षा देने में सक्षम अध्यापकों की पौध तैयार की जा सके.

उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में माध्यमिक शिक्षा की स्थिति को देखकर लगता है कि आने वाले सालों में कमज़ोर नींव पर मजबूत भवन बनाने की सपना धीरे-धीरे बिखराव की ओर आगे बढ़ेगा. उत्तर प्रदेश में शिक्षा मित्रों को स्थाई नियुक्ति का आदेश उसी बिखराव की दिशा में उठाया गया एक क़दम लगता है. जिससे आने वाले समय में शिक्षा की स्थिति और बदतर होगी. ऐसे अध्यापक जिनको शिक्षा की समझ नहीं है, उनके ऊपर बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी है. इस तरह की स्थिति के कारण शिक्षक प्रशिक्षकों की जरूरत महसूस होती है. लेकिन बेहतर मानव संसाधन को और बेहतर बनाने के लिए कम मेहनत करनी होती है.

लेकिन अगर मानव संसाधन यथास्थिति वाली मानसिकता और सरकारी सुरक्षा वाली खोल में सिमटा हुआ हो तो, ऐसे लोगों के साथ काम करना और माहौल को बेहतर बनाने की दिशा में काम करना उतना ही मुश्किल होता है. इससे आने वाले समय में स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है. बेहतर शिक्षा के अभाव में जीवन में बेहतरी की तमाम संभावनाएं मुरझा जाती हैं. लेकिन इस तरफ़ किसी की नज़र क्यों नहीं जाती? शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर कोई देशव्यापी सहमति क्यों नहीं बनती है, इसके पीछे तो एक कारण है कि निजीकरण के कारण बहुत सारे लोग शिक्षा को लेकर होने वाली बहस के इस दायरे से बाहर हो जाते हैं. शिक्षा में अलग-अलग गुणवत्ता वाली शिक्षा के तमाम केंद्र एक कुपोषित विकास की कहानी लिख रहे हैं, जिसके अंतिम नतीजे देश की बेहतर तस्वीर को सामने नहीं लाते हैं.

शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त पूर्वाग्रहों को कम करने के लिए लंबा सफ़र तय करना होगा. हर क्षेत्र में काम करने के दौरान व्यक्ति ख़ास तरह की मनोवृत्ति, सोच और समझ का जाल बुनता चला जाता है. इसको साफ़ करने के लिए खुद से कठिन सवाल पूछने और नए सवालों का समाधान खोजने की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है. बचपन में शिक्षा कि विकल्प जीवन की दिशा और दशा को निर्धारित करने में मील का पत्थर साबित होता है. इसमें सरकारी शिक्षा की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है. प्राथमिक स्तर की शिक्षा के बाद की बाकी शिक्षा के लिए सरकारी संस्थानों का विकल्प ही खुला होता है. आज के निजी स्कूलों की स्थिति पहले के निजी स्कूलों से काफ़ी बेहतर है. अच्छी शिक्षा देने वाले और शिक्षा के प्रति सही सोच रखने वाले शिक्षकों का सम्मान होना चाहिए. सरकारी और निजी के भेदभाव वाले आग्रहों से मुक्त होकर देखने पर पूरी स्थिति साफ़-साफ़ नज़र आएगी. इस तरह की पूर्वाग्रह मुक्त सोच विकसित करने के लिए भी कोशिश करने की जरूरत है.

आने वाले दिनों में एनसीएफ के मूल्यांकन, शिक्षा क्षेत्र की तमाम समस्याओं और समाधान के विकल्पों पर बात करेंगे ताकि शिक्षा विमर्श की इस कड़ी को और आगे बढ़ाया जा सके.

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