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जॉन डिवीः स्कूल समाज की आवश्यकता है

JOHN_1शिक्षा के क्षेत्र में दार्शनिक जॉन डिवी ‘व्यवहारवाद’ के प्रवर्तक माने जाते हैं. व्यवहारवाद की मान्यता है कि गतिविधि विचार की पूर्ववर्ती होती है. इसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अनुभव इस बात को निर्धारित करता है कि क्या सीखा जाएगा. डिवी ने शिक्षा क्षेत्र को अपने विचारों से प्रभावित किया. जब डिवी शिक्षण की प्रक्रिया में बच्चों को केंद्र मानने और शिक्षा की सामाजिक उपयोगिता का मुद्दा उठाते हैं तो वह 21 वीं सदी के तमाम विचारों को जीवंत करते चले जाते हैं.
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उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में निहित उन सभी क्षमताओं का विकास करना है जो उसे अपने वातावरण पर नियंत्रण करने में सक्षम बनाएंगी. यहां वातावरण का अर्थ प्राकृतिक और सामाजिक वातावरण दोनों से है. जहाँ प्राकृतिक वातावरण जीवित रहने के लिए आवश्यक था, वहीं व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास और मानवीय विकास की प्रासंगिकता सामाजिक वातावरण पर निर्भर थी. डिवी बच्चे को पूरी शैक्षिक प्रक्रिया का हृद्य (केंद्र) मानते थे. उनका मानना था कि बच्चों की शिक्षा उनकी क्षमताओं, रुचि और आदतों की मनोवैज्ञानिक समझ के साथ शुरू होनी चाहिए. हालांकि बच्चे की अपनी रुचियां और प्रवृत्तियां तभी उपयोगी और महत्वपूर्ण हो सकती हैं जब वे सामाजिक रूप से उपयोगी बन जाएं.
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इस तरह डिवी के मुताबिक बच्चों की क्षमताओं और स्वाभाविक बुद्धि को इस तरह से दिशा दी जानी चाहिए ताकि वे ख़ुद अपनी सामाजिक परिस्थितियों की माँग का सामना करने में सक्षम हो सकें. डिवी का विचार था कि सामाजिक कुशलता एक काफी महत्वपूर्ण योग्यता है जिसे एक व्यक्ति को प्राप्त करना चाहिए. इसके साथ-साथ एक बच्चे में विकसित होने वाली क्षमताएं और उसे मिलने वाला ज्ञान सामाजिक परिस्थितियों में उपयोगी भी होना चाहिए.
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शिक्षा है जीवन की आवश्यकता
शिक्षा के कार्यों की चर्चा करते हुए डिवी ने कहा था कि शिक्षा जीवन की आवश्यकता है. सामाजिक रूप से स्वीकार्य जीवन के लिए शिक्षा जरूरी है. उन्होंने पाया कि शिक्षा बच्चे की जन्मजात प्रवृत्तियों, सामाजिक मानकों और माँग के बीच की खाई को पाटने में मददगार थी. इस तरह से स्कूल को एक ऐसी संस्था के रूप में देखा गया जो एक सामाजिक आवश्यकता थी. क्योंकि स्कूल बच्चों में एक सामाजिक चेतना विकसित करने में सहायक थी. डिवी ने एक आदर्श स्कूल की बात की थी जो अपनी चारदीवारी के बाहर मौजूद बड़े समाज का ही प्रतिबिंब था, जिसमें जहाँ जीवन को जीकर सीखा जा सकेगा. लेकिन इसे विशुद्ध, सहज और बेहतर संतुलित समाज की तरह बनाने की जरूरत थी.
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अपने आदर्श स्कूल के बारे में डिवी का मानना था कि यह एक ऐसी जगह होगी जो बच्चों का उनके घर से अलग नहीं करेगा. इसकी बजाय यह उन गतिविधियों को संरक्षित करेगा, जारी रखेगा और उन गतिविधियों को फिर से करने का मौका देगा जिनसे बच्चे परिचित हैं. उनकी मान्यता थी स्कूल परिवार का विस्तार होना चाहिए.

6 Comments on जॉन डिवीः स्कूल समाज की आवश्यकता है

  1. Excellent information a lot of thanks.

  2. सर जी जॉन डेवी से सम्बंधित और जानकारी की आवश्यकता है कृपया सबंधित सामग्री पोस्ट करें।

  3. राज मंगल जी, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया इस पोस्ट को पढ़ने और अपनी राय साझा करने के लिए। एजुकेशन मिरर पर आपका स्वागत है।

  4. Raj mangal // June 29, 2016 at 4:11 am //

    एक शब्द बहुत अच्छी व सारगर्भित पोस्ट।

  5. नासिर जी सबसे पहले आपका आभार पढ़ने के लिए। ज्ञान की सार्थकता संवाद व उपयोग में शामिल होने से है। अगर वह आसान शब्दों में प्रवाह के साथ लोगों तक पहुंच पाए, तो संवाद सार्थक है। बाकी ज्ञान के झरने के लिए लिए ज़ॉन डिवी जी को शुक्रिया कहना चाहिए कि उन्होंने स्कूलों का समाजीकरण करने की भूमिका बड़े तार्किक और प्रभावशाली शब्दों में लिखी, जो आज भी बताता है कि स्कूल वास्तव में समाज की जरूरत हैं।

  6. Syed Nasir Hasan, Tonk, Rajasthan // December 21, 2014 at 5:06 pm //

    शिक्षा क्षेत्र के एक ख़ास विचारक का परिचय आपने अच्छे और संक्षिप्त रूप में कराया. जानकारी फराहम करने के लिए शुक्रिया.

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