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प्राथमिक शिक्षाः आज भी प्रासंगिक है गुणवत्ता का सवाल

एक अप्रैल 2010 से भारत में शिक्षा का अधिकार क़ानून लागू किया गया। इसके तहत 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया। निजी स्कूलों में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के लिए 25 फ़ीसदी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान किया गया।

उस दौरान निजी स्कूलों ने आरक्षण का विरोध किया और मामला क़ानूनी लड़ाई में आगे तक गया, लेकिन आख़िरकार 25 फ़ीसदी सीटों के आरक्षण को मान्यता मिली। एक ख़ास बात है कि निजी स्कूल में पढ़ने वाले ऐसे बच्चों के लिए सरकार अपनी तरफ़ से पैसों का भुगतान करती है और यह खर्च सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों पर आने वाले खर्च से कहीं ज्यादा होता है।

शिक्षा का अधिकार क़ानून लागू होने के बाद से शिक्षाविदों द्वारा शिक्षा की गुणवत्ता का सवाल प्राथमिकता से उठाया गया। उनका कहना है कि सरकारी स्कूल में बच्चों की उपस्थिति सुनिश्चित करना ही पर्याप्त नहीं है। अगर बच्चे स्कूल आ रहे हैं तो यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि वे सीख रहे हैं। पिछले साल कई स्कूलों की ख़बरें प्रकाशित हुईं कि बच्चों को पढ़ना नहीं आता, उनको गिनती गिनने में भी परेशानी हो रही थी। यह मसला शिक्षा की गुणवत्ता और बच्चों के सीखने से संबंधित है। अगर एक बच्चा अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा स्कूलों में बिता रहा है तो उसका कुछ तो परिणाम होना चाहिए। यानि स्कूल जिस मकसद और उद्देश्य के साथ खोले गए हैं…उन उद्देश्यों की पूर्ति होनी चाहिए।

गुणवत्ता के सवाल पर बवाल

वर्तमान में शिक्षा की गुणवत्ता से जुड़े तमाम भ्रम या पूर्वाग्रह स्थापित हो गए हैं। पहली निजी स्कूलों में अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा मिलती है। सरकारी स्कूलों में अच्छी पढ़ाई नहीं होती है। सरकारी स्कूलों में उन्हीं परिवारों के बच्चे जाते हैं जिनके पास कोई विकल्प नहीं है। यानि विकल्पहीन व्यवस्था का विकल्प निजी स्कूल बन रहे हैं। यहाँ एक तथ्य ध्यान देने योग्य है कि सरकारी स्कूलों में प्रशिक्षित अध्यापकों का चयन किया जाता है। चयन के बाद भी इन अध्यापकों के प्रशिक्षण और ट्रेनिंग सत्र का आयोजन समय-समय पर होता रहता है। लेकिन ट्रेनिंग का एक रोचक पहलू यहाँ पर ध्यान देने योग्य है कि सरकारी स्कूलों के संदर्भ में बहुत से प्रशिक्षण कार्यक्रमों को महज औपचारिकता के तौर पर लिया जाता है, जिसमें केवल उपस्थिति दर्ज़ करने की जरूरत होती है। ऐसे में इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों में ऐेसे अध्यापकों और अध्यापिकाओं को भेजने की प्रवृत्ति होती है जिनके पास काम कम होता है। जिनकी रुचि स्कूल के कामों और बच्चों को पढ़ाने में कम होती है। क्योंकि पढ़ाने वाले अध्यापकों के जाने से स्कूल का परिचालन प्रभावित होता है। इस तरह से प्रशिक्षण की प्रक्रिया चलती रहती है और स्कूल अपने पुराने ढर्रे पर संचालित होता रहता है।

आमतौर पर सरकारी स्कूलों सारे कागजी काम समय से होते रहते हैं, बाकी क्षेत्रों में परिवर्तन की प्रक्रिया बेहद धीमी होती है। या कम से कम ऐसी होती है कि उससे कोई ख़ास असर नहीं पड़ता। वहां संचालित होने वाली गतिविधियों को यंत्रवत संचालित किया जाता है। आदेश आया शुरू, आदेश ख़त्म तो गतिविधि बंद। इसका बच्चों पर क्या असर हो रहा है क्या नहीं, इससे न शिक्षकों को सरोकार होता है और न स्कूलों की जाँच करने वाले अधिकारियों को जिनको पर्याप्त समय फ़ील्ड में बिताना चाहिए। सरकारी स्कूलों की इस प्रवृत्ति को तोड़ना काफ़ी मुश्किल है। जिम्मेदार लोगों को जिम्मेदारी से मुक्ति देकर प्रशिक्षण के लिए भेजने का विचार किसी भी प्रधानाध्यापक को पसंद नहीं आएगा। उनका सीधा सा जवाब होगा, “अरे, फलां जी चले जाएंगे तो स्कूल कौन देखेगा। वो चले गए तो बच्चों को संभालना मुश्किल हो जाएगा। अरे, उनको भेज दो उनके जाने से कम से कम रोज़ का काम तो प्रभावित नहीं होगा।” इस तरह का भाषा और शब्दावली में उनकी चिंताओं को समझा जा सकता है।

बच्चों के प्रशिक्षण की आवश्यकता

दूसरी बात गुणवत्ता का सीधा सबंध बच्चों से है…लेकिन बच्चों को पढ़ने, लिखने और चीज़ों को सही दृष्टिकोण से देखने-समझने के लिए प्रशिक्षित करने की परंपरा हमारे सरकारी स्कूलों में नहीं है। निजी स्कूलों में इस मसले पर काफ़ी ध्यान दिया जाता है। बच्चों को इस तरह के अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं ताकि उनका संज्ञानात्मक विकास बेहतर ढंग से हो सके। सरकारी स्कूलों के संदर्भ में यह काम शिक्षकों के ऊपर टाल दिया जाता है।रोज़मर्रा की व्यस्तता में शिक्षक घर और परिवार की जिम्मेदारी भी संभाल रहे होते हैं। ऐसे में उनके पास किताबें पढ़ने और बदलते समय के साथ ख़ुद को अपडेट करने का वक़्त नहीं होता। महिला शिक्षकों के साथ तो समस्या और भी गंभीर होती है। स्कूल के बाद उनको घर की सारी जिम्मेदारी संभालनी होती है और अपने बच्चों की देखभाल भी करनी होती है…ऐसे में सालों साल बीत जाते हैं। उनके ख़ुद का विकास रुक जाता है और वे भी एक ढर्रे पर बच्चों को पढ़ाने समझाने और अपनी समझ के अनुसार उनकी जिज्ञासाओं को शांत करने की कोशिश करते हैं।

लेकिन ऐसे में शिक्षक बच्चों की जिज्ञासाओं के अनुरूप वे चीज़ों को देखने की क्षमता खो देते हैं और यह समझने से चूक जाते हैं कि बच्चे इस तरह की स्थिति का सामना अपनी ज़िंदगी में पहली बार कर रहे हैं। उनको भावी चुनौतियों के लिए तैयार करना। समस्याओं का समाधान निकालने का रास्ता खोजने में मदद करना और ख़ुद से समस्याओं का समाधान निकालने की दिशा में प्रेरित करने की जरूरत है।ऐसे में भयमुक्त वातावरण, परीक्षाओं में फेल न करने जैसे निर्देश शिक्षकों की उलझनों को बढ़ाने का काम करते हैं। बच्चों को लगता है कि हमें तो पास होना ही है, इस कारण से वे पढ़ना छोड़ देते हैं। उनको लगता है कि जब पास होना ही है तो पढ़ाई का सर दर्द क्यों लेना? छोटी उम्र में बच्चों को समझाना कठिन होता है। इसलिए राजस्थान में बोर्ड परीक्षाओं की प्राथमिक और उच्च-प्राथमिक स्तर पर वापसी हो रही है ताकि बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया जा सके। इसके तरह फ़ैसला किया गया कि अगले सत्र से कक्षा तीन,पाँच व आठवीं में बोर्ड परीक्षा होगी। कक्षा तीन में स्‍कूल स्‍तर पर, पाँच में ज़िला स्‍तर पर और आठवीं कक्षा में संभाग स्‍तर पर बोर्ड परीक्षाओं का आयोजन किया जाएगा।”

बच्चों को डराने की रणनीति कितनी सही?

बहुत से शिक्षाविद् इस फ़ैसले को शिक्षा के अधिकार की मूल भावना के ख़िलाफ़ मानते हैं जो बच्चों को पास-फेल का ठप्पा लगाने की भावना का विरोध करती है। राजस्थान के शिक्षकों की लंबे समय से यह मांग रही है कि बोर्ड परीक्षाओं को फिर से शुरू करना चाहिए ताकि शिक्षा का स्तर फिर से बेहतर किया जा सके। इसके पीछे शिक्षकों का तर्क होता है कि जब बोर्ड परीक्षाएं होंगी तो सारे शिक्षक अपने विषय को गंभीरता के साथ पढ़ाएंगे, उनकी भी जवाबदेही तय होगी और बच्चा भी पढ़ने के लिए प्रेरित (या मजबूर) होगी। इस तरीके से शिक्षा का स्तर बढ़ेगा। केवल शिक्षकों पर पढ़ाने के दबाव से शिक्षा का स्तर नहीं बढ़ेगा। इसके पीछे उनका एक और तर्क था कि अगर पहली कक्षा के अधिगम स्तर को छात्र ने नहीं प्राप्त किया है तो उसे फिर से पहली कक्षा में पढ़ने का मौका देना चाहिए ताकि उसकी नींव मजबूत हो सके और वह आगे पढ़ाई में पीछे न रहे क्योंकि हर बच्चे के सीखने की रफ़्तार फर्क़-फर्क़ होती है।

इस तथ्य को शिक्षा मनोविज्ञान भी मान्यता देता है कि बच्चों के सीखने की रफ़्तार में वैयक्तिक विभिन्नता पाई जाती है और हर बच्चा अपनी रफ़्तार से चीज़ों को ग्रहण करता, समझता और सीखता है। लेकिन तमाम तर्कों के आगे परीक्षाओं के कारण बच्चों में होने वाले मानसिक तनाव को यहां बहुत सामान्य करके देखा जा रहा है। परीक्षा के माहौल को बदलने की दिशा में पहल होनी चाहिए ताकि बच्ची परीक्षाओं से भयभीत न हो और परिणामों के आधार पर वह बाकी बच्चों की तुलना में ख़ुद को हीन न महसूस करे। तीसरी कक्षा के बच्चों की परीक्षा लेने से एक रियलिटी चेक तो बनेगा कि इस स्तर पर बच्चे को क्या आता है, उसे किस स्तर के सहयोग की आवश्यकता है। लेकिन इस बात की आशंका ज़्यादा है कि यह पूरी प्रक्रिया बच्चों की छंटनी करने की कवायद भर बनकर रह जाए और शिक्षकों का सारा ज़ोर पाठ को पढ़ाने, समझाने और बच्चों को अपनी समझ विकसित करने सं हटकर तथ्यों को रटवाने पर हो जाए।

लिखित परीक्षाओं के मूल्यांकन की अपनी एक सीमा होता है। किसी भी बच्चे के लिए एक पंक्ति लिखना या अपनी बात लिख करके बताना कितना मुश्किल होता है इस तथ्य से एक शिक्षक भली-भांति अवगत होता है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की होगी कि बच्चों की लिखित अभिव्यक्ति को बेहतर बनाने की दिशा में काम किया जाए। उनको लिखने के अवसर प्रदान किए जाए। लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। लेकिन लिखने की पूरी प्रक्रिया को अक्षर पहचानने, मात्राओं की समझ विकसित करने, शब्दों को पढ़ने से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। इसलिए कहा जा सकता है कि एक आसान समाधान से चीज़ों को सुलझाना किसी बेहतर परिणाम का रास्ता खोल देगा, यह एक कल्पना मात्र ही होगी। वास्तविक परिणाम हासिल करने के लिए बच्चों के नज़रिए से चीज़ों को समझने की आवश्यकता है ताकि उनके परीक्षा से संबंधित भय को उनके संदर्भ में समझा जाए, ऐसा न हो कि गुणवत्ता के सवाल से घबराकर बच्चों को डराने की पुरानी परंपरा की फिर से वापसी हो जाए और बच्चे स्कूल व घर पर तथ्यों को रटने और कम नंबर पाने के लिए प्रताड़ित होने लगें।

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