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परीक्षा के नाम से इतनी टेंशन क्यों होती है?

नई दिल्ली में विश्वविद्यालय की तरफ़ जाती मेट्रो में दो छात्र बातें कर रहे थे। एक ने कहा, “अरे जब वो फेल हो गया तो मैं क्या चीज़ हूँ? मैं तो परीक्षा में कुछ ज़्यादा लिखकर भी नहीं आया था। परीक्षा के टाइम तो वह एक घंटे पहले बाहर आ जाता था। लेकिन वह लुढक गया यानि फेल गया और मैं पास हो गया।”

उसने कहा कि जब मैं इंटरनेट कैफ़े में अपनी रिजल्ट देखने गया था तो अकेले गया ताकि कोई कुछ कहे न। इन बातों से परीक्षाओं और रिजल्ट के बारे में कितना बड़ा हौव्वा बनाया जाता है इसका अंदाजा मिलता है। परीक्षा परिणाम की समीक्षा का दायित्व समाज के सभी लोगों पर होता है। ऐसा लगता है मानो उनको छात्रों के परीक्षा परिणाम की निर्मम समीक्षा का लाइसेंस मिला हुआ है।

परीक्षाओं का डर

परीक्षा..परीक्षा…परीक्षा…छात्र जीवन में परीक्षाओं की बार-बार वापसी हर बार तनाव  लेकर आती है। इनकी समाप्ती पर राहत की साँस लेते हैं छात्र और कहते हैं कि चलो छुट्टी मिली। लेकिन परीक्षाओं के बीतते-बीते अगर आख़िरी पर्चा गड़बड़ा जाए…या कोई सवाल छूट जाए…या किसी सवाल का कोई और जवाब लिखा जाए तो परेशानी परीक्षा हाल से होते हुए कमरे तक आ जाती है। कुछ ऐसा ही होता है बहुत से स्टूडेंट्स के साथ। कुछ तो बेफिक्री में आगे निकल जाते हैं। लेकिन सबके लिए ऐसी परिस्थितियों से पार पाना आसान नहीं होता। इन्हीं परीक्षाओं में सफलता की तमाम कहानियों के किस्से भी दबे होते हैं। तनाव और ख़ुशी के लम्हों का बँटवारा किसके हिस्से में कितना आता है? यह बात भी काबिल-ए-ग़ौर है। इसलिए परीक्षाओं से होने वाले डर और उससे उपजे तनाव को समझने की जरूरत महसूस होती है।

अगर कायदे से देखा जाए तो  परीक्षाओं के बाद सवालों पर चर्चा होनी चाहिए। ख़ैर चर्चा तो परीक्षाओं के पहले भी होती है। लेकिन चीज़ें अगर बहुत ज़्यादा साफ़ न हो और विषय के कांसेप्ट क्लियर न हुए हों तो परीक्षा हाल में इस बात की ज़्यादा संभावना होती है कि गड़बड़ होनी तय है, घालमेल तय है और समय के उचित बँटवारे के अभाव और लिखने की रफ़्तार, सोचने की रफ़्तार में तालमेल के अभाव में पूरा सफ़र बिना तैयारी के पिकनिक जैसा होता है…यानि सारा मजा किरकिरा हो जाता है।

ख़ैर पिकनिक की अच्छी और बुरी यादें दोनों याद आती हैं, लेकिन कमबख़्त परीक्षाओं से जुड़े बुरे ख़्याल ही दूर तक याद आते हैं। अगर कोई अपनी समस्या बताता है तो अपनी भी पीड़ा उभर आती है। पुराने जख़्म हरे हो जाते हैं। कभी पर्सेंटेज यानि प्रतिशत में दो-चार फ़ीसदी या चार-छह नंबर कम पाने का मलाल रह जाता है तो कभी टॉप करने से चूक जाने का मलाल होता है।

सीखने का उद्देश्य है जरूरी

ख़ैर टॉप करके भी क्या होता है? अगर उसका कोई लाभ मिला तो मिला। अगर नहीं मिला तो कार्यक्षेत्र में सारी चीज़ें नए सिरे से सीखनी ही पड़ती है। परीक्षाओं से जीवन की परीक्षाएं भी याद आती हैं कि वहां तो सारे सवाल अचानक से आते हैं। रोज सरप्राइज टेस्ट होता है। रोज़ परिणाम घोषित होता है। पास-फेल घोषित होता है इंसान। कभी-कभी टॉप करता है तो कभी-कभी फ़्लॉप भी होता है। वहां भी तुलना होती है…किसको कितना मिला, यह सवाल होता है। हर किसी की जवाब फर्क़ होता है और कोई ग़लत नहीं होता।

परीक्षाओं में सबके सामने एक से सवाल रखने वाली परिस्थिति कृत्रिम तो है ही, इससे  कुछ अलग हटकर हासिल नहीं होता। ऐसे में लोग रटते हैं, किताबों को पढ़ते हैं….आपस में चर्चा करते हैं…इस बहाने कुछ लोगों के कांसेप्ट क्लियर हो जाते हैं, कुछ को कुछ चीज़ें समझ में आ जाती हैं और कुछ के मन में कुछ टॉपिक्स अनसुलझे रह जाते हैं….अगली परीक्षाओं के लिए और व्यक्ति फ़ाइनल परिणाम लेकर आगे बढ़ जाता है। अगर पढ़ाई के पीछे सीखने का उद्देश्य साफ़ हो तो परीक्षाओं में सफलता-विफलता से होने वाला असर थोड़ा कम होगा।

रोज़मर्रा की अच्छी पढ़ाई से कम होगा तनाव

लेकिन जब बात बाकी सफलताओं और परिणामों के संबंध की होती है। इस दौरान बाकी लोगों से प्रतिस्पर्धा होती है तो निश्चित रूप से परेशानी भी होती है। इसलिए अच्छा तो यही होगा कि हम अपनी विशेषता पहचाने और अपने सीखने का तरीका पहचाने और यह जाने की हमको कोई चीज़ कैसे समझ में आती है, कैसे याद होती है, कैसे क्लिक होती है…पढ़ने की कौन सी रणनीति हमारे लिए बेहतर है तो बात बन सकती है।

इसके समानांतर अगर क्लॉसरूम प्रासेस में चर्चाओं, विमर्श और संवाद में संप्रत्ययों को विस्तार से समझने, समझाने और साझी समझ कायम करने की दिशा में थोड़ी कोशिश हो तो परीक्षाएं फन हो जाएंगी और विफलता का डर कम हो जाएगा…ऐसे में जाहिर सी बात की छात्रों का आत्मविश्वास बढ़ेगा और उसकी बुनियादी बेसिक कांसेप्ट की अच्छी समझ और अच्छा प्रदर्शन करने की ललक होगी।

यह स्थिति किसी भी छात्र को परीक्षाओं को सकारात्मक तरीके से लेने के लिए प्रेरित करेगी और उसका परिणाण निःसंदेह बेहतर होगा। विषयों को रोज़मर्रा के अनुभवों से जोड़ना भी काफ़ी जरूरी है ताकि चीज़ें हमें विजुलाइजेशन, अशोसिएशन और पिक्चोरियल मेथड के रूप में याद रहें।

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