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कैसी होनी चाहिए भाषा की कक्षा?

कुछ सवालों के जवाब बड़ी देर से आते हैं। वे मन के कोने में घूमते रहते हैं। अपना वजूद खोजते रहते हैं और फिर एक दिन चुपके से पास आकर खड़े हो जाते हैं। आज कुछ ऐसा ही हुआ। लंबे अर्से पहले मुझसे सवाल पूछा गया था, “आपकी नज़र में भाषा की कक्षा कैसी होनी चाहिए?”

इस सवाल का जवाब मैंने भाषा के होल लैंग्वेज अप्रोच और बाकी सारे अनुभवों के आधार पर देने की कोशिश की थी। लेकिन उस सवाल का असली जवाब तो आज मिला। भाषा की कक्षा में भाषा की मौजूदगी और भाषा के इस्तेमाल के आसपास ही भाषा के कक्षा की परिकल्पना आकार लेती है।

किसी भी भाषा की कक्षा में छात्र-शिक्षक के बीच संवाद होगा। कुछ कहा जाएगा। कुछ सुना जाएगा। कुछ समझा जाएगा। शब्दों का कोई अर्थ होगा। लेकिन वह अर्थ केवल शब्दों की सीमा में बँधा नहीं होगा, वह किस भाव व उतार-चढ़ाव के साथ कहा जा रहा है…यह भी महत्वपूर्ण होता है।

जो जवाब मिला वह कुछ ऐसा था, “किसी भी स्कूल में भाषा की कक्षा ऐसी होनी चाहिए जहाँ भाषा अपनी संपूर्णता और सहजता के साथ मौजूद हो। यानि भाषा जैसे व्यवहार में इस्तेमाल की जाती है। उसी तरीके से उसका उपयोग करने की पूरी छूट बच्चों को होनी चाहिए। इसके साथ-साथ व्याकरण के नाम पर अभिव्यक्ति को दबाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।”

क्योंकि जीवन के अनुभव तो यही कहते हैं कि अगर कहने के लिए हमारे पास कोई बात होती है तो व्याकरण बाधा नहीं बनता। वह बात अपनी भाषा में अभिव्यक्ति का रास्ता खोज लेती है। अगर व्याकरण आड़े आता है तो वही बात कविता हो जाती है। सहज कविता के शब्दों में भावों की सहजता भी मौजूद होती है। वे बनावटी कविता जैसे भारी-भरकम नहीं होते…जहाँ शब्द तो होते हैं। लेकिन भावों और अर्थ का अभाव होता है।

भाषा की कक्षा में मौखिक और लिखित दोनों रूपों को विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए। इसके लिए कहा जाता है कि शिक्षक कोई बात कहते समय पूरे वाक्य का प्रयोग करें। सही तरीके से अपनी बात रखें ताकि बच्चों को अपनी समझ बनाने में मदद मिले। इसके अलावा बच्चों को लिखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। इस दौरान ध्यान रखा जाना चाहिए कि लिखने का काम उनके लिए भारी-भरकम काम न हो जाए। क्योंकि इससे उनकी रुचि पर असर पड़ेगा।

वे लिखने में अपनी रुचि खो देंगे। इसलिए भाषा के विविध आयामों जैसे पढ़ना, लिखना, बोलना, सुनना, समझना जैसे अवसर उनके सामने होने चाहिए। इसके लिए प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार अपनी पुस्तक बच्चों की भाषा और अध्यापक  में बाल गीत के माध्यम से भाषा से बच्चों को रूबरू करवाने की बात कहते हैं ताकि बच्चा जब कविता सीख जाए। तो कविता के शब्दों पर उंगली रखते हुए अनुमान लगाना सीख जाएगा और धीरे-धीरे अक्षरों और शब्दों को पहचानना और फिर उनसे अर्थ निकालना भी।

अाख़िर में कहा जा सकता है कि भाषा की कक्षा का माहौल जीवंत बनाने के लिए बच्चों की कल्पना को उड़ान देने वाला माहौल उनको मदद करता है। इसके लिए पोस्टर और बाकी सारी सामग्री का इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन मानवीय संचार का विकल्प कोई भी माहौल नहीं हो सकता। इसलिए संवाद की पूरी प्रक्रिया में भाषा की जीवंत मौजूदगी बेहद आवश्यक होती है। यह आज भी है और आगे भी रहेगी।

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