शिक्षा विमर्शः ये परीक्षा है या ‘घनचक्कर की पहेली’!
मुल्यांकन की प्रक्रिया एक ऐसा आईना है जिसमें उस शिक्षण प्रणाली के पीछे रही सोच की गंभीरता या छिछलेपन का अक्स देखा जा सकता है। भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की मौजूदा मूल्यांकन प्रणाली को डेविड ऑसबरॉ ‘घनचक्कर की पहेली’ योजना कहते हैं। 1980 के आसपास लिखे गए इस आलेख में न्यूतम अधिगम स्तर (Minimum Learning Level) की पदचाप साफ सुनाई दे रही है और यह इसी ख़तरे की तरफ़ इशारा करता हुआ प्रतीत होता है।
मूल्यांकन को शीघ्र ही हमारे शिक्षातंत्र की खिड़कियों से बाहर फेंक देना चाहिए। मूल्यांकन के हर पहलू को, मूल्यांकन शोध को, कार्यान्वयन को, मूल्यांकनकर्ताओं के प्रशिक्षण तथा कार्यशालाओं को, अधिकाधिक दुष्ट मूल्यांकन विधियों की ईजाद में लगे मूल्यांन- भक्तों से भरे बड़े-बड़े भवनों को अर्थात मूल्यांकन की संपूर्ण प्रक्रिया को ठीक उसी तरह बाहर फेंक देना चाहिए जैसे 19वीं शताब्दी के लंदन में शयनागारों की खिड़कियों से चेम्बरपोस्ट्स (मूत्रपात्र) खाली किए जाते थे।
घनचक्कर की पहेली योजना
शाला शिक्षण में विगत तीस वर्षों से चल रही सतत गिरावट के कारणों में मूल्यांकन सबसे बड़ा कारण रहा है। इसमें भी अंक प्रदान करने की प्रक्रिया को अत्यधिक वस्तुनिष्ठ बनाने की सनक तथा बालकों के कोमल बुद्धि को परम अनावश्यक जानकारियों से भरने की अनबुझ प्यास के कारण यह एक भारी भरकम ‘घनचक्कर की पहेली योजना’ बनकर रह गया है।
अपने लेख में डेविड कहते हैं, “परीक्षा केवल छात्र की स्मरण शक्ति की जाँच करती है, न कि उसकी शैक्षणिक उपलब्धियों और सृजनात्मकता की। यह प्रक्रिया साल दर साल दोहराई जाती है और अंत में बहुत ही कम तथ्य दिमाग में रह पाते हैं। इसकी सत्यता की जाँच बीए प्रथम वर्ष के किसी छात्र से कुछ प्रश्न पूछकर की जा सकती है।”
उनके अनुसार, “रटने की योग्यता किसी भी काम को समझदारी से कर सकने की योजनाओं में से एक नहीं है। मूल्यांकन को व्सतुनिष्ठ बनाने के लिए बहुत से क्रिया कलापों को साधारण पाठ्यक्रम से निकाल दिया जाता है। जैसे कला, हस्तशिल्प, संगीत, विचार-विमर्श, कविता (पाठ्यपुस्तकों में आई कविताओं को छोड़कर)। ये विधाएं किसी प्रकार पाठ्यक्रम में रह भी जाएं तो उन्हें महत्व नहीं मिलता। अधिक से अधिक इन्हें हॉबी मान लिया जाता है। यदि शिक्षा का उद्देश्य सम्पूर्ण व सुखी मानवों का निर्माण करना है, जो विद्यालय छोड़ने के बाद समाज को कुछ दे सकें तो ये विधाएं बेहद महत्वपूर्ण हैं।”
डेविड लिखते हैं कि इसी प्रकार मूल्यांकन ने पाठ्यपुस्तकों को बर्बाद कर दिया है। आज पाठ्यपुस्तक कुछ तथ्यों का संकलन मात्र बनकर रह गई हैं, जिसका रट्टा मारना परीक्षा के लिए जरूरी है। आज की शिक्षा व्यवस्था में खुले प्रश्नों की अनुमति नहीं है ताकि हर छात्र अलग-अलग जवाब दे सके। क्योंकि इससे अंक प्रदान करना शिक्षक के लिए आसान नहीं होगा। पढ़ाई के दौरान ही शिक्षक और छात्र यह सोचते हैं कि क्या परीक्षा में यह सवाल आएगा? बाकी रही सही कसर ज़्यादा से ज़्यादा नंबर लाने की होड़ से पूरी हो जाती है।
अंत में डेविड कहते हैं, “हमारे विद्यालय शिक्षण में तबतक किसी भी महत्वपूर्ण गुणात्मक सुधार की संभवान नहीं है, जबतक कि शिक्षातंत्र के गले में कसता हुआ मूल्यांकन का फंदा न काटा जाए तथा विद्यालयों पाठ्यपुस्तकों, अध्यापकों व छात्रों को इस बोझ से मुक्त न कर दिया जाए। जब वे इस बोझ से मुक्त हो जाएंगे तभी शिक्षा के लिए अधिक महत्वपूर्ण क्रियाकलापों में ईमानदारी और निडरता से रुचि ले सकेंगे।”
(दिगंतर जयपुर द्वारा प्रकाशित ‘शैक्षिक विमर्श’ के अंक अगस्त-सितंबर 1998 से साभार। डेविड ऑसबरॉ के इस लेख का अनुवाद शिक्षाविद् रोहित धनकर ने किया है।)
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