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शिक्षा विमर्शः ‘मैकाले को हम कब तक दोष देते रहेंगे?’

डॉ. विश्व विजया सिंह

इस आलेख की लेखिका डॉ. विश्व विजया सिंह।

भारतीय समाज में इतनी विषमता है, विद्यालयों के इतने स्तर हैं, उचित माहौल और संसाधनों के अभाव में क्या सभी बच्चों की उपलब्धि समान हो सकती है? बोर्ड की परीक्षाएं सबके लिए समान हैं। परीक्षा परिणाम पर ही बच्चे का भविष्य निर्भर है। हम समानता की बात करते हैं, कैसी समानता, कहां है समानता?

आइए, अब हम राष्ट्रीय आयोगों और उनके रिपोर्ट्स की अनुशंसाओं पर एक नजर डालते हैं। कोठारी कमीशन के अनुसार देश में सामाजिक और राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में शिक्षा बहुत सहायक हो सकती है। आयोग का कहना था कि देश में सामान्य शिक्षा की एक ही प्रणाली हो। हमारे देश में विभिन्न प्रकार के स्कूल चल रहे हैं, जो हमारी समाजवादी व्यवस्था के प्रतिकूल हैं, उनको तुरंत बंद कर देना चाहिए। आयोग ने कॉमन स्कूल्स की स्थापना का सुझाव दिया था।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में कहा गया है, “समानता के उद्देश्य को साकार बनाने के लिए सभी को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध करवाना ही पर्याप्त नहीं होगा, ऐसी व्यवस्था भी होनी जरूरी है, जिसमें सभी को शिक्षा में सफलता प्राप्त करने का समान अवसर मिले। इसके अतिरिक्त समानता की मूलभूत अनुभूति केंद्रिक पाठ्यचर्या के माध्यम से करवाई जाएगी। वास्तव में राष्ट्रीय शिक्षा का उद्धेश्य है कि सामाजिक माहौल और जन्म के संयोग के उत्पन्न कुंठाएं दूर हों।”

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या

किताब पढ़ते बच्चे

किताब पढ़ते बच्चे।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 के अनुसार, “हमारे कई स्कूल आज भी जीर्ण-शीर्ण और घुटे हुए भवनों में चल रहे हैं, जो कि नीरस, अनुत्तेजक, अरुचिकर भौतिक परिस्थितियों को उत्पन्न करते हैं।”

वहीं महात्मा गांधी ने शिक्षा को एक ऐसे माध्यम के रूप में देखा था, जो सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त अन्याय, हिंसा व असमानता के प्रति राष्ट्र की अंतरात्मा को जगा सके। स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हम शिक्षा के क्षेत्र में कितना परिवर्तन ला पाएं हैं, इस पर सोचना और कुछ ठोस क़दम उठाना जरूरी है। क्योंकि हम मैकाले को भी हम कब तक दोष देते रहेंगे?

(यह आलेख डॉ. विश्व विजया सिंह ने भारतीय पक्ष, जून 2011 के अंक में ‘अप्रियम सत्यम’ शीर्षक से लिखा था। विद्या भवन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘खोजें और जाने’ की संपादन टीम के सक्रिय सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निभाई। उन्होंने बहुत से नए लोगों को शिक्षा के क्षेत्र में लिखने के लिए प्रेरित किया।) 

2 Comments on शिक्षा विमर्शः ‘मैकाले को हम कब तक दोष देते रहेंगे?’

  1. Virjesh Singh // June 1, 2018 at 12:12 pm //

    शुक्रिया मैम अपनी बात कहने के लिए। आपकी बात काफी हद तक सही है। पर लगन के साथ काम करने की अपनी जिद जारी रखिये। खुशी की एक बड़ी वज़ह है यह आपके लिए। बात करने वाले लोग काम करने वाले लोगों को हतोत्साहित करना चाहते हैं, पर इस प्रयास से खुद को अलग रखिये, उन बच्चों के लिए आपकी मेहनत और काम की वैल्यू है जिनको आप पढ़ा रही है।

  2. meenusoni // June 1, 2018 at 12:06 pm //

    aapka lekh shat pratishat satya h lekin there is no value of hard work. if you are master in flattering than you can survive otherwise you have to leave the job. me bhi ek private school me adhyapika hoo.kahne ko to school ki fees,uska infrastructure,vaha ki highly educated faculties yani bahari chamak dhamak ke tamam intajam hai parantu ander ka khokhlapan,bachcho ke beshkimti samay aur jeevan se khilvad aur maje ki baat parents ki khamoshi dil ko tod deti h .aaj most of the english medium public school me teachers ya to parhana nahi jante ya phir kese parhana h ye nahi jante. maje ki aur ek bat na to khud jimmedari se parhane ka kaam karte h aur yadi koi tanmayata se apna kaam kare to uski tang khichne me koi kasar nahi chhorte.

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