कैसे असफल होते हैं स्कूल?
कोई सरकारी स्कूल असफल कैसे होता है? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब बहुत से तरीके से दिया जा सकता है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर शिक्षकों की राय भी जाननी चाहिए कि अच्छी तरह से चलने वाला एक स्कूल कैसे बदहाली के दौर में चला जाता है और बच्चों का लर्निंग लेवल नीचे आ जाता है।
कुछ साल पहले आठवीं तक के इस स्कूल में छह का स्टाफ था। सारे शिक्षक बच्चों को पढ़ाने के लिए काफ़ी मेहनत करते थे। इस स्कूल में बच्चों को इंग्लिश सब्जेक्ट बेहद पसंद था, क्योंकि इसके शिक्षक उनको मन से पढ़ाते थे। हिंदी भाषा के शिक्षक भी बच्चों पर पूरा ध्यान देते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि सभी बच्चों को पढ़ना-लिखना आ जाता था और आगे वाली कक्षाओं में उनका प्रदर्शन बेहतर होता था।
‘संबलन’ से कमज़ोर भी होते हैं स्कूल
राजस्थान में कुछ साल पहले ‘शिक्षा संबलन’ योजना के दौरान ब्लाक शिक्षा अधिकारी महोदय ने इस स्कूल का दौरा किया। वे सभी कक्षाओं में गए। हर कक्षा में बच्चों के बीतच सवालों का जवाब देने की होड़ लगी थी। उन्होंने दोपहर का एमडीएम खाया और उसकी भी तारीफ़ की। इस स्कूल के शिक्षक कहते हैं कि उस दौरे के बाद से जैसे इस स्कूल को किसी की नज़र लग गई।
इसके ठीक बाद यहां के प्रधानाध्यापक को एक और स्कूल का प्रभार दे दिया गया। इसके कारण वे तीन दिन इस स्कूल में और बाकी तीन दिन अन्य स्कूल में रहते। उनके जो कालांश लगे हुए थे, उन्होंने कहा कि डाक का काम इतना ज़्यादा है कि उनके लिए पढ़ाना मुश्किल है। इसके अलावा इस स्कूल के शिक्षकों को अन्य स्कूलों में डेपुटेशन पर भेजने का सिलसिला शुरू हो गया। यानी ‘शिक्षा संबलन’ से विद्यालय मजबूत होने की बजाय और कमज़ोर हो गया।
शिक्षकों की आपसी राजनीति का प्रभाव
इसी बीच एक दिन अंग्रेज़ी भाषा के शिक्षक से प्रधानाध्यापक ने पूछा कि क्या बात है बच्चे जब देखो तब अंग्रेज़ी पढ़ते रहते हैं, उन्होंने कहा कि कक्षा में सख़्ती होती है और बच्चों से सवाल पूछे जाते हैं इसलिए वे इस विषय पर इतना ध्यान दे रहे हैं। इसके बाद उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा के शिक्षक के पहली से पांचवी तक के सारे कालांश हटा दिए और दूसरे विषयों के कालांश दे दिए।
इसके बारे में प्रधानाध्यापक ने अन्य स्टाफ से कहा कि देखते हैं कि ये अंग्रेजी में बच्चों की पकड़ कैसे मजबूत करवाते हैं। इसकी प्रतिक्रिया में अंग्रेज़ी भाषा के शिक्षक जो प्राथमिक स्तर हिंदी पढ़ा रहे थे, उन्होंने भी ध्यान देना छोड़ दिया। इस स्कूली राजनीति का नतीजा यह हुआ कि बच्चे हिंदी भाषा में कमज़ोर हो गए और अंग्रेज़ी भाषा पर भी उनकी पकड़ धीरे-धीरे कमज़ोर हो गई। बाद में इस स्कूल के एक शिक्षक का अन्यत्र तबादला हो गया। एक शिक्षामित्र काम कर रहे थे, सरकार ने शिक्षामित्र वाली व्यवस्था ख़त्म कर दी तो वे भी चले गए। एक शिक्षक का किसी अन्य स्कूल में पढ़ाने के लिए लगा दिया गया।
स्टाफ की कमी और बच्चों की उपेक्षा
अब स्कूल में केवल तीन का स्टाफ है। प्रधानाध्यापक डाक के काम में उलझे रहते हैं। पहली से आठवीं तक को हिंदी पढ़ाने की जिम्मेदारी उनकी है। लेकिन वे कक्षाओं में नहीं जा पाते हैं। हिंदी भाषा की ट्रेनिंग में उन्होंने गणित के शिक्षक को भेज दिया क्योंकि वे युवा हैं। उन्होंने ट्रेनिंग तो ले ली, लेकिन उनको महसूस होता रहा कि भाषा के शिक्षक तो वे ही हैं, इसलिए पढ़ाने की जिम्मेदारी तो उन्हीं की है। इसलिए इस सत्र (2015-16) में भाषा का कालांश भी शुरू नहीं हो सका है।
पढ़ने के बुनियादी कौशल का अभाव
शिक्षकों ने पूरी बातचीत के दौरान टिप्पणी करते हुए कहा कि लंबे समय बाद इस मुद्दे पर किसी से बात हो रही है। इन सारे मसलों के बारे में तो कोई पूछता ही नहीं। उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा पर ध्यान देने के नाते बाकी कक्षाओं में बच्चे गणित का सवाल नहीं पढ़ पा रहे हैं, उनको हल करना तो दूर की बात है।
वहीं अंग्रेज़ी भाषा के शिक्षक का कहना है कि बच्चे अंग्रेज़ी भाषा के अक्षर पहचानते हैं, मिलाकर पढ़ने की कोशिश भी कर लेते हैं, लेकिन उसके आगे हिंदी में लिखे उसके अर्थ को पढ़ना और समझना बच्चों के लिए बेहद मुश्किल काम है। वे कह रहे थे कि इस स्कूल में अगर सात का स्टाफ हो तो हम इस स्कूल को निजी स्कूल से भी अच्छी स्थिति में लाकर दिखा देंगे। लेकिन स्टाफ की कमी के कारण हम चाहते हुए भी बहुत कुछ नहीं कर पाते। बाकी रही सही कसर हिंदी भाषा पर ध्यान न देने के नाते पूरी हो जा रही है।
निष्कर्ष क्या है?
यानी एक स्कूल शिक्षकों की आपसी राजनीति, अधिकारियों की उपेक्षा और मानवीय संसाधन के अभाव में बदहाली का शिकार हो जाता है। एक स्कूल को बेहतर होने में सालों लगते हैं, बिगड़ी हुई स्थिति को संभालने में भी लंबा समय लगता है। वर्तमान में इस स्कूल में 150 बच्चों का नामांकन है। तीन शिक्षकों के भरोसे पूरा स्कूल है। ट्रेनिंग के सिलसिले में कोई न कोई शिक्षक या प्रधानाध्यापक स्कूल से बाहर रहते हैं यानी दो या एक शिक्षक के भरोसे 150 बच्चों का भविष्य लिखा जा रहा है और उनको शिक्षा का अधिकार मिल रहा है।
इससे संबंधित कागजी आँकड़े हर महीने शिक्षा विभाग को भेजे जाते हैं। वहां से मानव संसाधन विकास मंत्रालय को और हम ऐसे लाखों बच्चों की कहानी से आँकड़ों में रूबरू होते हैं कि इतने लाख बच्चों को एमडीएम का लाभ मिल रहा है। इतने बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिल रहा है। ज़मीनी वास्तविकता क्या है, उसकी एक झलक इस कहानी में मिलती है।
Thanks a lot for your valuable ideas.
Bahot badhiya mere dost,
Khoob pasand aya…..
Somewhere, you have not considered the capacity of teachers to teach the students. Within every few years, there is new curriculum which is been implied on education system, has an effect on the teachers teaching ability. Teachers capacity building should include curricular and co-curricular parts along with pedagogy.
Somewhere the intent to use and apply the teachings should be built in teachers.
Assessment of students is crucial, but at the same time horizons of assessments can be stretched to the senior stake holders within the schools i.e. HM’s and teachers. After all, everyone is learner.