बहुभाषिकताः क्लासरूम में हर भाषा का हो सम्मान
बहुत से स्कूलों में बच्चों को अपनी मातृभाषा का इस्तेमाल करने से रोका जाता है। यह मसला सिर्फ़ सिरोही की गरासिया भाषा का नहीं है, यह बात डूंगरपुर की बागड़ी का मसला नहीं है। इस पोस्ट में पढ़िए स्कूल में कैसे बच्चों की भाषा के इस्तेमाल को ख़ामोश करने की कोशिश की जाती है।
भारत में बहुभाषिकता को एक संसाधन के रूप में देखने की बजाय एक समस्या की तरह देखा जाता है। इसके लिए हम स्कूलों का उदाहरण ले सकते हैं जहां क्लासरूम में एक बच्चे को अपनी मातृभाषा का इस्तेमाल करने से रोका जाता है। एक स्कूल में बच्चों को गुब्बारे बांटे जा रहे थे। इसके पहले बच्चों से पूछा गया, “मेरे हाथ में क्या है?” क्लास के सारे बच्चे एक साथ बोले, “यह पोपटा है।” सिरोही ज़िले में बोली जाने वाली गरासिया भाषा में गुब्बारे को पोपटा कहा जाता है।
इसके बाद अध्यापक की प्रतिक्रिया थी, “यह पोपटा नहीं है।” उनका यह कहना सीधे तौर पर बच्चों को यह समझाने की कोशिश थी कि इस क्लास में तुम्हारे घर, गाँव, परिवार में बोली जाने वाली भाषा के लिए कोई जगह नहीं है। तो फिर क्लास में कौन सी भाषा के लिए जगह है?
यह शिक्षक के अगले जवाब से सामने आता है। उन्होंने कहा, “हिंदी में इसे गुब्बारा कहते हैं और अंग्रेजी में इसे बैलून कहते हैं।” यानी अगर छोटे बच्चों को स्कूल में अध्यापक से कोई बात कहनी है तो उनको अंग्रेजी या हिंदी में अपनी बात रखनी होगी। क्लास में गरासिया, मारवाड़ी, बागड़ी, भोजपुरी, अवधी और ब्रजभाषा के लिए कोई जगह नहीं है। इसके बाद आख़िर में गुब्बारे बाँटने की बारी आई तो मैंने सारे बच्चों से एक बात कही, “आप लोग एक-एक पोपटा ले लो।”
हाल ही में छत्तीसगढ़ के स्कूलों में 9वीं-दसवीं कक्षाओं के लिए हिंदी के पर्चे में छत्तीसगढ़ी में जवाब देने की बात हुई तो इसका सबसे ज़्यादा विरोध स्थानीय शिक्षकों द्वारा किया गया। उनका कहना था कि हम हिंदी विषय में छत्तीसगढ़ी के इस्तेमाल को बढ़ावा कैसे दे सकते हैं? इस तरह का नज़रिया बहुभाषिकता के विरोध वाला नज़रिया है, जो यह मानकर चलता है कि विचारों का आदान-प्रदान और अभिव्यक्ति केवल मानक भाषा में ही हो सकती है। स्कूल में स्थानीय भाषाओं को महत्व देने वाली बात उनके गले नहीं उतरती।
भाषाशास्त्र के प्रोफ़ेसर रमाकांत अग्निहोत्री एक साक्षात्कार में ‘मल्टीलिंगवल एज्युकेशन’ के मसले पर कहते हैं, “बच्चों की भाषा को स्कूलों में ख़ामोश कर दिया जाता है, यह स्थिति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। क्योंकि बच्चे की मातृभाषा उसकी पहचान और ज्ञान की भाषा है। यह सामाजिक ताने-बाने के बीच संवाद को बरकरार रखने वाली भाषा है।” इस साक्षात्कार में वे बच्चों को उनके भाषिक परिवेश से काटने वाली प्रक्रिया की तरफ़ संकेत करते हैं।
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