जरूरी सवालः स्कूल क्यों नहीं आ रहे हैं बच्चे?

राजस्थान में अभी मक्का तोड़ने और कटाई का काम हो रहा है। इसके कारण स्कूल में बच्चों की उपस्थिति प्रभावित हो रही है।
भारत एक ‘कृषि प्रधान’ देश है। ऐसा कोई वाक्य लिखना ख़ुद अपनी बात को नकारने जैसा ही है। कृषि की प्राथमिकता के समानांतर किसानों के हितों की प्रधानता का सवाल भी आता है। हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि कृषि की प्रधानता और किसानों की हितों की प्रधानता के बीच खाई बहुत चौड़ी है। इस वास्तविकता को देखने-समझने का प्रयास देश के कुछ हिस्सों में जारी है। मगर हम अभी बच्चों की स्कूलों में अनुुपस्थित रहने वाली उस परिस्थिति के ऊपर अपनी बात को केंद्रित करेंगे, जिसका रिश्ता खेती के काम और गाँव की वास्तविक परिस्थिति से है।
राजस्थान के बहुत से सरकारी स्कूलों में सितंबर के आख़िरी हफ़्ते से स्कूल नियमित आने वाले बच्चों की संख्या तेज़ी से कम हो रही है। अक्टूबर महीने से यह संख्या इतनी कम हो गई है कि 10-15 दिन बाद वापस स्कूल जाने के बाद यह सवाल मन में आता है कि बच्चे कहाँ गए? इस सवाल का जवाब शिक्षकों की तरफ़ से मिलता है, “बच्चे घर की रखवाली (देखभाल) कर रहे हैं। परिवार के बाकी लोग मक्का की कटाई करने जाते हैं, ऐसे में छोटे भाई-बहनों की देखभाल के लिए बच्चे घर पर रुक जाते हैं। तो कुछ बच्चे परिवार के साथ खेतों पर काम करने के लिए भी जाते हैं।”
अभी गाँवों में टैक्टर-ट्रॉली पर मक्का का डंठल (या पौधे) लादकर ले जाती गाड़ियों को देखा जा सकता है। इसका इस्तेमाल पशुओं के चारे, जलावन और झोपड़ी बनाने के लिए किया जाता है। इसके बाकी क्या इस्तेमाल हैं, इसके बारे में लोगों से पूछा जा सकता है। अभी गाँव में एक विशेष प्रकार की पत्ती जिसे क्षेत्रीय भाषा में आँवल कहते हैं, उसको सुखाने और बोरों में भरने का काम भी हो रहा है। एक शिक्षक साथी ने बताया कि इसका इस्तेमाल मेंहदी के साथ मिलाने के लिए होता है। यानी गाँव में अभी लोगों के पास काम (रोज़गार, जिसे स्वरोज़गार भी कह सकते हैं) है। इसलिए उनको पूरे परिवार की मदद चाहिए ताकि वे खेती और इससे जुड़े काम को अच्छे से कर पाएं।
बच्चों की उपस्थिति वाले सवाल के बारे में शिक्षक ने जुलाई में कही हुई अपनी बात दोहराई, “स्कूल में बच्चों की उपस्थिति केवल चार महीनों में सबसे ज़्यादा होती है। ये महीने हैं अगस्त,सितंबर, दिसंबर और जनवरी।” हालांकि स्कूल के रजिस्टर के मुताबिक़ बच्चों की नियमित उपस्थिति के लिहाज से जुलाई का महीना भी ख़ास है। पढ़ाई की दृष्टि से इस महीने का कितना अच्छा इस्तेमाल हो पाता है? यह सवाल ख़ुद में एक बड़ा सवाल है, इसलिए इसपर फिर कभी विस्तार से बात करेंगे और फिर से अपनी बात को बच्चों की नियमित उपस्थिति वाले सवाल की तरफ़ ले चलते हैं।
स्कूल में नियमित उपस्थिति का बच्चों के सीखने पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस बात को शिक्षक साथी भी स्वीकार करते हैं। अगर कोई बच्चा नियमित स्कूल नहीं आता तो उसके बारे में कहा जाता है कि यह इसलिए नहीं पढ़ पा रहा है क्योंकि यह रोज़ स्कूल नहीं आता। रोज़ स्कूल आना और रोज़ सीखना दोनों बातें एक साथ हो भी सकती हैं और नहीं भी। यह हर स्कूल की परिस्थिति, शिक्षकों के काम के प्रति नज़रिये और काम करने के तरीके के अलावा भी बहुत सी चीज़ों पर निर्भर करता है। मगर हम अभी के लिए मानकर चलते हैं कि रोज़ना स्कूल आने वाले बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का स्तर बेहतर होता है, इस दृष्टि से उनको रोज़ाना स्कूल आना चाहिए। एक जागरूक अभिभावक को अपने बच्चों को नियमित स्कूल भेजना चाहिए।
एक स्कूल के पहली कक्षा का उदाहरण लेते हैं। इस स्कूल की पहली कक्षा में करीब 40 का नामांकन है। इसमें से 35 फ़ीसदी बच्चे नियमित स्कूल आते हैं। लगभग पचास फ़ीसदी (19-20) बच्चे अनियमित हैं। बाकी 15 फ़ीसदी बच्चे कभी-कभार स्कूल आते हैं। इनमें से कुछ ड्रॉप आउट की श्रेणी में आ गये हैं। एक स्कूल की पहली कक्षा की स्थिति पूरे स्कूल और ऐसे बहुत से स्कूलों की गंभीर स्थिति की तरफ़ संकेत करती है, जहाँ बच्चे स्कूल नियमित नहीं आ रहे हैं, या फिर ड्राप आउट हो रहे हैं और जो आ रहे हैं उनका सीखना (पढ़ना-लिखना) भी प्रभावित हो रहा है। बच्चों के स्कूलों में नियमित उपस्थिति और प्रभावित होगी। इसके बारे में एक शिक्षक कहते हैं, “दीपावली के टाइम तो जो बच्चे स्कूल आ रहे हैं, वे भी नहीं आएंगे।” यानी स्कूल आने वाले बच्चों की संख्या और कम होगी।
आख़िर में कह सकते हैं, “वर्तमान में उम्मीद के सौ कारण हैं, मगर कुछ बातें हैं जो परेशान भी करती हैं।”
(नोटः अगली पोस्ट में चर्चा का विषय होगा, “जो बच्चे स्कूल आ रहे हैं, वे सीख रहे हैं?” ‘एज्युकेशन मिरर’ पर प्रकाशित इस पोस्ट के बारे में आप अपने विचारों से अवगत करा सकते हैं।)
इस लेख के बारे में अपनी टिप्पणी लिखें