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स्कूलः ‘साहब! यहां फटकार लगाने वाला सिस्टम नहीं चलता’

पाठ्यपुस्तक लेखन, पाठ्यपुस्तक लेखन समिति

एक सरकारी स्कूल में किताबों को धूप दिखाते बच्चे। राजस्थान की सरकार पहली से आठवीं तक की इन किताबों को बदलने जा रही है।

हर स्कूल की अपनी कहानी है। एक ही कहानी को सुनाने का अलग-अलग लोगों का अपना अंदाज होता है। किसी स्कूल की कहानी सुनाते समय हर वक़्ता कहानी के केंद्र में ख़ुद को रखता है। लेकिन ऐसे लोग बेहद कम हैं जो अपनी कहानी के केंद्र में बच्चों को रखते हैं।

बच्चों को केंद्र में रखकर अपनी बात कहने वाले शिक्षकों से होने वाला संवाद बड़ा रोचक होता है। लेकिन कभी-कभी बहुत बोर करने वाला भी हो जाता है, जब कोई शिक्षक कहते हैं कि ये बच्चे तो जंगली है! इनका कुछ नहीं हो सकता।

अरे! इन बच्चों को तो किताबें देने का कोई मतलब नहीं है, यह तो किताबें कबाड़ी वाले को बेच देंगे। इन सारी बातों से बच्चों के ऊपर भरोसा न करने वाली बात बार-बार नए शब्दों में सामने आती है। शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का संवेदनशील होना, अपने अनुभवों के बारे में विचार करना और अपने व्यवहार के प्रति सजग होना बेहद जरूरी है। आजकल राजस्थान में शिक्षा संबलन का कार्यक्रम चल रहा है, रोज़ अख़बार में ख़बरें छप रही हैं कि फलां स्कूल में शिक्षकों को फटकार लगाई।

यह उसी तरह की बात है जैसे बड़े बच्चों को काँच की कोई चीज़ टूट जाने पर फटकार लगाते हैं। अधिकारियों की यह फटकार लगाने वाली प्रवृत्ति शिक्षकों को हतोत्साहित करती है। वे एक दिन स्कूल आते हैं और चाहते हैं कि सारी चीज़ें व्यवस्थिति हों। उनकी कल्पनाओं के अनुरूप हों! स्कूल आने वाले अधिकारी स्कूलों की स्थिति को ज़्यादा बेहतर ढंग से समझ पाते, अगर वे महीने में कुछ दिन आसपास की स्कूलों में जाकर समय बिताते और संवेदनशीलता के साथ चीज़ों को समझने की कोशिश करते।

स्कूल में जाने वाले अधिकारियों से कोई यह सवाल क्यों नहीं पूछता कि उन्होंने स्कूल के लिए कौन सी ऐसी चार-पाँच जरूरी बाते बताई हैं जो आने वाले समय में स्कूल को बेहतर बनाने में मददगार होंगी। शिक्षकों को अपना काम ज़्यादा अच्छे से करने के लिए प्रेरित करेंगी। अगर इस तरह की बातें भी रिपोर्ट्स के साथ प्रकाशित हों तो शायद तस्वीर के दूसरे पहलू की तरफ़ भी लोगों का ध्यान जाएगा। इस तरह की रिपोर्टिंग से बाकी स्कूलों के शिक्षक भी लाभान्वित होंगे।

आंगनबाड़ी केंद्र में खेलते बच्चे। भारत में लंबे समय से यह मांग की जा रही है कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के प्री-स्कूलिंग के लिए भी क़दम उठाना चाहिए ताकि इन बच्चों को भविष्य की पढ़ाई के लिए पहले से तैयार किया जा सके। उनको पढ़ने और किताबों के आनंद से रूपरू करवाया जा सके।

आंगनबाड़ी केंद्र में खेलते बच्चे।

इस तरह के ‘स्कूली दौरों’ की सबसे ख़ास बात है कि वक़्त की कमी। समय का अभाव अधिकारियों के पास भी है और अपने स्कूल की हालत बयान करते शिक्षकों के सामने भी। ऐसे में समझने-समझाने की बजाय फटकार लगाने वाला काम ही सबसे आसान लगता है। फटकार लगाने वाली ‘अफ़सरी प्रवृत्ति’ में चीज़ों को पल्ला झाड़ लेने वाली सोच सामने आती है। अब अधिकारियों को कौन समझाए कि साहब! यहां फटकार लगान वाला सिस्टम नहीं चलता। अगर चीज़ों को बेहतर करना है तो कोई नया तरीका आजमा कर देखिए।

अाजकल शिक्षकों की कमी निकालने का एक फ़ैशन सा चल पड़ा है। हर कोई उनका दोष निकालकर आगे बढ़ जाना चाहता है। वे शिक्षक ऐसे क्यों हैं? उनका व्यवहार ऐसा क्यों है? इसके बारे में विचार करने की परेशानी कोई मोल नहीं लेना चाहता है। वहीं शिक्षक चीख-चीख कर कह रहे हैं कि हमारी कोई नहीं सुनता। अगर आप स्कूल में जा रहे हैं तो उनको भी सुनिए। स्कूल में बैठकर उनकी स्थिति-परिस्थिति को समझने की कोशिश कीजिए और उनसे समाधान के बारे में बात करिए। अगर इस तरीके से कोई रचनात्मक संवाद हो तो कुछ बात बन सकती है। ऐसा संबलन ही सही मायने में स्कूल को मजबूत करेगा, आगे बढ़ने के लिए मददगार साबित होगा।

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