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मिड डे मील स्कीमः ‘हे भगवान! ऐसा भोजन हमें रोज़ देना’

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एक सरकारी स्कूल में एमडीएम खाते बच्चे।

एमडीएम खाने लायक होता है? इस योजना का जिक्र आने पर बहुत से लोगों के मन में पहला सवाल यही आता है। इसके जवाब में कहा जा सकता है कि हाँ, निश्चित तौर पर। पहली जुलाई को मैं ख़ुद एमडीएम की रोटियां खा रहा था। वे रोटियां किसी होटल पर मिलने वाली रोटियों से ज़्यादा अच्छी थीं।

अपने अबतक के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि सरकारी स्कूलों में चलने वाली मध्याह्न भोजन योजना (मिड डे मील स्कीम) ने हज़ारों-लाखों बच्चों को भूख और अशिक्षा दोनों के ख़िलाफ़ खड़े होने का हौसला दिया है। उनको स्कूल आने के लिए प्रेरित किया है। बाकी बच्चों के साथ जुड़ने का मौका दिया है।

जब एक स्कूल के बच्चे खाने की छुट्टी में किसी मंत्रोच्चार के बदले सीधे शब्दों में कहते हैं, “भगवान, ऐसा भोजन हमें रोज देना।” तो इन शब्दों के पीछे छिपे भाव किसी सम्मोहन की तरह हमें अपनी तरफ़ खींच लेते हैं। इन बच्चों की अपेक्षाएं बेहद सहज है। बिल्कुल साँसों की आवाजाही की तरह।

एमडीएम के दौरान स्कूल का माहौल

न जाने उनकी प्रार्थना का रचयिता कौन है। किसने इसे बनाया है। स्कूल की दीवारों के पास ऐसे शब्द इस योजना के लागू होने के पहले शायद नहीं गूंजे होंगे। उस समय हो सकता है कि कुछ बच्चे भूखे पेट या बासी खाना खाकर स्कूल आते हों। स्कूल में जम्हाई लेते हों। पेट दर्द की शिकायत करते हों। बीमार होते हों। इसका अंदाजा बच्चों के बीच रहते हुए। उनके भोजन (एमडीएम) को ख़ुद खाते हुए ही महसूस किया जा सकता है।

बच्चों का कुपोषित होना भारत में एक सच्चाई है। इस नज़रिये से यह योजना तो ग्रामीण और आदिवासी अंचल के वरदान सरीखी है। इस कार्यक्रम पर फ़ोकस करके बच्चों में बहुत से व्यवहारगत परिवर्तन लाये जा सकते हैं। खाने की छुट्टी के बाद बच्चों के चेहरे पर दिखने वाली ख़ुशी, छुट्टी की ख़ुशी से किसी भी मायने में कम नहीं होती। जब बच्चों की थालियां आपस में टकराती हैं। बच्चे अपनी छिपाकर रखी गयी थालियां निकालते हैं। अपने स्कूल बैग या झोले में रखी छोटी-छोटी प्लेट और थालियां लेकर एमडीएम खाने के लिए जाने की तैयारी कर रहे होते हैं तो लगता है कि स्कूल में किसी महोत्सव का माहौल है।

ख़ुशी के आँसू और एमडीएम

एक स्कूल में विदाई समारोह के दिन आठवीं कक्षा की लड़कियों ने अपने स्कूल में खाना बनाने वाली बाई का जिक्र सबके नाम लिखे अपने एक पत्र में किया। अपने बारे में रही लिखी बातों को सुनकर खाना बनाने वाली बाई अपने आँसू नहीं रोक पाईं। बच्चों ने कई सालों तक प्यार से खाना खिलाने और ध्यान रखने के लिए उनको शुक्रिया कहा था। इस तरह का रिश्ता खाने-खिलाने के दौरान ही बन सकता है। बड़ी गहरी आत्मीयता में ही आकार ले सकता है।

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बच्चों को एमडीएम परोसते हुए कांता बाई, जिनकी तारीफ बच्चों ने अपने विदाई वाले पत्र में की थी।

ऐसे रिश्तों को समझने के लिए हमें किसी स्कूल के गेट के भीतर दाख़िल होना होगा। एमडीएम के चूल्हे तक जाना होगा। वहां काम करने वाले लोगों से बात करनी होगी।

यहां खाना बनाने वाली महिलाओं को बहुत कम पैसे मिलते हैं, जो स्कूल के सारे बच्चों का खाना बनाने के लिहाज से कम हैं, लेकिन इसका असर कभी खाने की गुणवत्ता पर नहीं आता। वे जिस शिद्दत के साथ अपना काम करते हैं, उस समर्पण में कोई कमी नहीं आती।

‘हम भी एमडीएम खाएंगे, अगर..’

इसका श्रेय अपने यहां खाना बनाने वाली महिलाओं को प्रेरित करने वाले शिक्षकों को भी जाता है जो एमडीएम की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलने में मदद करते हैं। किसी स्कूल की स्थिति का अंदाजा वहां बनने वाले एमडीएम से भी चलता है। बच्चे किसी तरीके से अपनी थालियां लेकर बैठते हैं। वे किस तरीके से एक साथ बैठकर खाना खाते हैं। अगर शिक्षक बच्चों को ख़ुद खाना बांटते हैं और एमडीएम खाते हैं तो ऐसे में माहौल तो अच्छा बनता ही है।

एक स्कूल में शिक्षकों की शिकायत थी कि कुछ लड़कियां खाना नहीं खातीं। इस बारे में लड़कियों से बात हुई तो उनका कहना था कि अगर आप भी हमारे साथ स्कूल का खाना खायें तो हमें भी एमडीएम खाएंगे। उनकी बात सुनकर बच्चों की समझदारी और संवेदनशीलता का अंदाजा लग रहा था। उस समय मैं डूंगरपुर में बतौर फेलो काम कर रहा था। ऐसे में हमें बहुत सारी बातों का ध्यान रखना होता था। हम बच्चों और शिक्षकों के बीच एक सेतु का काम करते थे। जो बच्चे ख़ुद शिक्षकों से नहीं कह पाते थे, वे हमसे आकर बताते थे।

एमडीएम में संतुलित आहार की खूबियां

हाल ही में एक युवा शिक्षक से इस बार में बात हो रही थी। उन्होंने कहा, “यह योजना बहुत ही अच्छी है। मगर इसका क्रियान्वयन जिस तरीके से किया जाता है उसमें इसका मूल उद्देश्य गुम हो जाता है। इसका मक़सद है कि सारे बच्चे एक साथ बैठकर भोजन करें। उनके बीच परस्पर सहयोग और मैत्री की भावना का विकास हो। उन्होंने ऑफ़िस में लगे चार्ट की तरफ़ संकेत करते हुए कहा कि एमडीएम में संतुलित आहार की सारी खूबियां हैं। अगर इस नज़रिये से इसको क्रियान्वित किया जाय तो एमडीएम का सकारात्मक असर बहुत से बच्चों की ज़िंदगी को सीधे तौर पर प्रभावित करेगा।”

जब उनसे बात हो रही थी उस समय वे स्कूली बच्चों के लिए आयरन की गोलियां खिलाने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने बेबाकी से अपनी राय रखते हुए कहा, “सब जानते हैं कि आयरन की गोलियां कितनी महंगी आती हैं। लोग कहते हैं कि अरे इनको फेंक दो क्या फ़ायदा है, बच्चों को खिलाने से। लेकिन मुझे इसका महत्व पता है, इसलिए मैं अपनी जिम्मेदारी को अच्छे से निभाने की कोशिश कर रहा हूँ।” ऐसे शिक्षकों का नज़रिया बाकी शिक्षक साथियों के लिए भी एक मिशाल है।

आख़िर में पहली जुलाई को एक स्कूल में एमडीएम की रोटियों के साथ इस साल के शैक्षणिक सत्र (2015-16) की शुरुआत हुई थी। इस योजना के बारे में बहुत कुछ सकारात्मक भी है, जो हमारी नज़रों से अक्सर ओझल रहता है। उस पहलू को आपके सामने रखने के लिए यह पोस्ट लिखी ताकि हम इस योजना के नये आयामों पर ग़ौर कर सकें।

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