Trending

किताबों को हासिये पर ढकेलती पासबुक

पठन कौशल, पढ़ने की आदत, रीडिंग स्किल, रीडिंग हैबिट, रीडिंग रिसर्च,

एक सरकारी स्कूल में एनसीईआरटी की रीडिंग सेल द्वारा छापी गयी किताबें पढ़ते बच्चे।

एनसीईआरटी की रीडिंग सेल में बच्चों के लिए कहानी की किताबें लिखने का एक प्रसंग सुनाते हुए प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार एक साक्षात्कार में बताते हैं कि कैसे कहानी के ऊपर एक बहस हो रही थी कि ऐसी कहानी का क्या लाभ है जिससे बच्चों को कोई नैतिक शिक्षा न मिल रही हो।

ऐसी ही एक कहानी में एक बच्ची के स्कूल के पास लगे आम के पेड़ से चुपचाप पका आम तोड़ने और खाकर सो जाने का जिक्र आता है, इसके बारे में विरोधी खेमे का कहना था कि आप लोग बच्चों को चोरी करना सिखा रहे हैं। जबकि इन किताबों का असल मक़सद बच्चों को पढ़ना सीखने की प्रक्रिया में रोचक पठन सामग्री उपलब्ध करवाना था।

पासबुक का सहारा

यह तो कहानी के किताबों की बात थी। अगर पाठ्य पुस्तकों की बात करें तो उसके लिए भी ऐसी ही प्रक्रिया से होकर गुजरना होता है। आजकल सरकारी और निजी दोनों जगह पर पढ़ने वाले बच्चे पासबुक का सहारा लेते हैं। वे मानते हैं कि पासबुक अच्छा नंबर पाने का एक माध्यम है। स्कूल में शिक्षक भी तो पासबुक का ही सहारा लेते हैं तो फिर क्यों हम ख़ुद से किसी सवाल का उत्तर लिखने की परेशानी उठाएं। पासबुक के बहुत से ख़तरे हैं मसलन एक शिक्षक को अपनी क्लास में बच्चों को जो माहौल देना चाहिए, वे उससे बचने की कोशिश करते हैं। वे बच्चों के लिए ख़ुद से नोट्स नहीं बनाते।

सवालों के जवाब की तलाश

.इससे बच्चों को कक्षा में पढ़ने वाला उस आनंद का एहसास नहीं होता जिसमें वे ख़ुद से सवालों का जवाब खोजने की कोशिश करते हैं। सवाल भले एक जैसे हों मगर सबके जवाब अलग-अलग होते हैं। जब वे किसी सवाल के जवाब में तब्दील होने की प्रक्रिया से होकर गुजरते हैं, तो उनको यह बात भी समझ में आती है कि जीवन में भी हमें बहुत से सवालों का जवाब ख़ुद से खोजना होता है। वहां हमारे सवालों के जवाब किसी पासबुक या किताब में पहले से लिखे नहीं होते। पहले से लिखे जवाब वास्तव में पाठ्यपुस्तकों के महत्व को कम कर रहे हैं और बच्चों को सोचने की क्षमता का विकास करने से वंचित कर रहे हैं।

बहुत से लोगों का मानना है कि बच्चे पासबुक से भी सीखते हैं। इसलिए पासबुक का मुद्दा बहुत ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। मगर इस तरह के तर्कों से पासबुक की मौजूदगी को सही ठहराना पाठ्यपुस्तकों के महत्व को खारिज कर देना होगा। अगर बच्चों को पहले से लिखे जवाब और सवालों से ही परिचित कराना है तो हर क्लास के ऐसी सामग्री छापी जा सकती है, जिसमें उस कक्षा के अनुरूप सवाल और जवाब हों। सरकार को ऐसी ही सामग्री सारे बच्चों को मुफ़्त उपलब्ध करवानी चाहिए ताकि उनको 200-250 रुपये देकर महंगी पासबुक न खरीदनी पड़े।

पढ़ने का कौशल विकसित हो रहा है?

पासबुक की मौजूदगी के बारे में लगता है, “किताबों से दोस्ती करने का मौका हर बच्चों को मिलना चाहिए। लेकिन हम तो बच्चों को तो सवाल रटने वाला तोता बनाने पर आमादा हैं। बाकी रही-सही कसर पासबुक और गाइड्स कर देती हैं जिनका करोड़ों का कारोबारा है। उनको बच्चों की चिंता क्यों होगी कि उनके भीतर पढ़ने का कौशल और पढ़ने की आदत का विकास हो रहा है या नहीं। उनको तो बस अपने कारोबार के विस्तार और मुनाफ़े से मतलब है।”

पासबुक के बारे में हमें सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की की बात पर ध्यान देना चाहिए जो कहती है, “पासबुक में सवालों के लंबे-लंबे जवाब दिए होते हैं। उससे तो बेहतर किताबें है जिसमें खोजने पर सवालों के छोटे उत्तर आसानी से मिल जाते हैं।” आख़िर में कह सकते हैं कि पासबुक को बढ़ावा देने वाले माहौल में बच्चों के ख़ुद से खोजने की क्षमता का विकास बाधित कर रहे हैं, जो छोटी अवधि में उनको लाभदायक लगती है लेकिन लंबी अवधि में उनको नुकसान ही पहुंचाती है।

इस लेख के बारे में अपनी टिप्पणी लिखें

Discover more from एजुकेशन मिरर

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading