कागजी काम के बोझ तले दबते स्कूलों की कहानी
कक्षा में बच्चों को पढ़ाने का कोई भी तरीका कितना ही नियोजित क्यों न हो, सहजता के अभाव में महज एक ‘कर्मकांड’ बनकर रह जाता है। इससे न तो बच्चों का सीखना सुनिश्चित होता है। और न ही शिक्षक को काम करने में आनंद आता है।
ऐसी स्थिति में शिक्षक कहते हैं कि इतना नाटक करने की क्या जरूरत है? अगर कोई चीज़ बच्चों को सहजता से सिखाई जा सकती है तो इतना ज्यादा तामझाम करने की क्या जरूरत है?
आँकड़ों में ‘आस्था’
शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे लोगों की भरमार है जो आँकड़ों में गहरी ‘आस्था’ रखते हैं, कागजी कार्रवाई को परम सत्य मानते हैं। ऐसे नज़रिये का कारण बदलाव की तमाम संभावनाएं कुंठित होती हैं। उनका सहज प्रवाह बाधित होता है। मगर लोगों को इस बात की परवाह क्यों कर होगी।
शिक्षक कहते हैं कि स्कूल तो प्रयोगशाला बनकर रह गये हैं। हर कोई अपने नये विचारों और नवाचारों का यहां आजमाना चाहता है। इसका सबसे ज्यादा असर शिक्षण कार्य की निरंतरता पर पड़ता है। इसके साथ ही शिक्षक पढ़ाई के अलावा अन्य कामों और कागजी कार्रवाई में उलझ जाता है।
शिक्षक अपना अनुभव सुनाते हुए कहते हैं कि अधिकारियों से बात होती है तो कहते हैं कि कैसे भी करो। दोनों चीज़ों को मैनेज करो। आपको पढ़ाना भी है और आपको कागज भी करने हैं। ऐसी स्थिति में एक शिक्षक क्या करे? इस बात का जवाब एक शिक्षक ही देते हैं, “अगर वह पढ़ाना चाहे तो भी संभव नहीं होता। न चाहते वह भी कागजी कार्रवाई की तरफ लौट आता है क्योंकि उसे भी तो अपनी नौकरी बचानी है।”
कागज़ी कार्यवाही में उलझे रहने से शिक्षक अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदारी नहीं बरत पाता| उसका मौलिक और सृजनात्मक चिंतन आँकड़े जुटाने में उलझकर रह जाता है |
बहुत दुखद स्थिति है .