लायब्रेरी में पहली क्लास के बच्चे क्या करेंगे ?
पहली क्लास में पढ़ने वाले बच्चों के घर की भाषा (होम लैंग्वेज) गरासिया है। हालांकि स्कूल में पढ़ाई की भाषा हिंदी है। मगर वे अभी हिंदी के साथ सहज होना सीख रहे हैं। हिंदी भाषा में मिलने वाले निर्देशों पर पकड़ बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। छोटे-छोटे वाक्य और शब्दों को पढ़ने की शुरुआत वे भाषा के कालांश में कर चुके हैं।
आज वे ‘लायब्रेरी इमर्जन’ के यादगार अनुभव से गुजरने वाले हैं, इस बात का उनको अंदाजा नहीं था। वे लायब्रेरी में बैठे भाषा के कालांश के शिक्षक के आने का इंतज़ार कर रहे थे। भाषा शिक्षक किसी काम में व्यस्त थे। ऐसे में बच्चों के साथ रैंडम संवाद का सिलसिला शुरू हुआ। सबसे पहले एक किताब पर बात हुई। यह किताब पहली क्लास के लिए तुलनात्मक रूप से थोड़ी कठिन थी। मगर खेती वाले अंशों के कारण यह उनके लिए अपने आसपास के परिवेश से जोड़ने और संदर्भ बनाने की दृष्टि से सबसे अच्छी किताब थी।
‘बंदर दवाई सोंट रहा है’
चूहे और बंदर वाली इस कहानी पर होने वाली बातचीत के दौरान बच्चे हिंदी के वाक्य बना रहे थे। किताब में छपे चित्रों को देखकर बच्चे बता रहे थे कि क्या हो रहा है? जैसे एक चित्र में बंदर खेत में दवाई का छिड़काव करने वाले चित्र को देखकर एक बच्चे ने कहा, “बंदर दवाई सोंट रहा है।” बच्चे के द्वारा इस्तेमाल किये गये वाक्य की संरचना हिंदी की है। मगर अभिव्यक्ति के अंदाज से पता चलता है कि बच्चा उसे अपने वास्तविक जीवन के अनुभवों से जोड़ पा रहा था।
छोटे बच्चों के साथ काम के बारे में एक शिक्षक-प्रशिक्षक कहते हैं, “पढ़ने वाले काम को इसे बहुत ज्यादा स्ट्रक्चर में बाँधने या बेहद नाटकीय बना देने की तुलना में एक खेल की तरह प्रस्तुत करना ज्यादा बेहतर होगा। क्योंकि बच्चों के लिए पढ़ने और खेलने में कोई अंतर नहीं होता। वे दोनों चीज़ों को समान उत्साह और आनंद के साथ करते हैं।”
लायब्रेरी का नजारा
पहली क्लास के बच्चों से पुस्तकालय में होने वाली बातचीत से बहुत सारी चीज़ों को प्रत्यक्ष रूप से देखने का मौका मिला। क्लास में बच्चों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। वे एक कहानी और उसके चित्रों पर चर्चा कर रहे थे। इससे जुड़े सवालों के जवाब दे रहे थे। क्लॉस में काम के दौरान किसी अथॉरिटी का इस्तेमाल नहीं किया गया। वहां मेरी मौजूदगी एक सुगमकर्ता (या फैसिलिटेटर) वाली ही थी। बच्चे स्वतंत्रता के साथ पूरी लायब्रेरी में घूम रहे थे। किताबें खोज रहे थे। एक के बाद दूसरी किताब उठा रहे थे।
दीवार पर जिस कहानी के चित्र बने हुए थे, वह कहानी एक बच्चा खोजकर लाया। इसके ऊपर 4-5 बच्चों के एक छोटे से समूह में बात हो रही थी। जो बच्चा वह किताब लेकर आया था वह बाकी बच्चों को ख़ुशी के साथ दीवार पर बने चित्रों की तरफ संकेत करके बता रहा था कि देखो, यह वही किताब है जिसके चित्र दीवार पर बने हैं। कुछ खोज लेने वाली जिज्ञासा का भाव बच्चे के चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता था।
किताब खोजने की खुशी
यह दृश्य कॉस्ट अवे फिल्म के उस दृश्य की याद दिला रहा था जिसमें समुद्र के एक टापू पर फंसा व्यक्ति पहली बार आग जलाते हुए ख़ुश होता है और कहता है कि देखो! मैंने क्या कर दिया है? उसी अंदाज में वह बच्चा कह रहा था, “देखो, मैंने कौन सी किताब खोजी? तुम भी देखो इसे।”
इसके बाद वह किताब बाकी बच्चों के हाथों में पहुंची। कोई उसे अकेले देख रहा था। तो कोई बाकी बच्चों के साथ उस किताब के पन्नों को पलटते हुए, दीवार पर बने चित्रों से मिलान कर रहा था। इस दौरान क्लास में एक बच्ची जिसकी भाषा कालांश के दौरान बेहद कम भागीदारी होती है, वह भी एक किताब लेकर देख रही थी। पढ़ने का अभिनय कर रही थी और किताब में बने चित्रों पर अंगुली रख रही थी। ऐसा लग रहा था कि वह चीज़ों को अलग-अलग देखने का प्रयास कर रही है। यह उस क्लास का ऐसा लम्हा था, जहां बच्चों की भागीदारी का स्तर अपने शीर्ष पर था।
किसी भी क्लास के लिए ऐसी स्थिति एक बेहद आदर्श स्थिति मानी जाती है। हर शिक्षक की हसरत होती है कि उसके क्लास में ऐसी स्थिति बने। बतौर शिक्षक-प्रशिक्षक ऐसी स्थिति को एक क्लास में देखना उस किताबी सिद्धांत को सामने जीवंत देखने जैसा था, जिसमें क्लास के सभी बच्चों की भागीदारी सुनश्चित करने और उसके महत्व पर ग़ौर करने की बात होती है।
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