शिक्षा है या बाज़ार में फिट करने वाला प्रशिक्षण?
भारत में प्राथमिक शिक्षा से जुड़े ऐसे अनुत्तरित सवालों की एक लंबी सूची है जो पिछले कई दशकों से जवाब के इंतज़ार में है। जैसे ‘कॉमन स्कूल सिस्टम’ का सवाल, हर बच्चे का पढ़ना-लिखना सुनिश्चित करने वाला मुद्दा, या फिर शिक्षकों के पढ़ने की आदत पर काम करने का मसला हो या फिर शिक्षक प्रशिक्षक का रिसर्चर के रूप में काम करने के लिए खुद को तैयार करने की समसामयिक जरूरत का मसला हो।
शिक्षा के सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पहलुओं से जुड़े इन सवालों की लिस्ट बहुत लंबी है। साझा करेंगे। एक-एक करके। अभी के लिए बस इतना ही कह सकते हैं कि शिक्षा का मसला बहुत व्यापक है। यह एक बहुआयामी विषय है जहां विभिन्न विषयों का संगम होता है। हम यह कहकर किनारा नहीं कर सकते हैं कि हम तो हिंदी वाले हैं, हम अंग्रेजी में लिखा रिसर्च पेपर पढ़कर क्या करेंगे, या फिर हम तो अंग्रेजी वाले हैं हिंदी में लिखा कोई अनुभव पढ़कर क्या करेंगे?
क्या यही शिक्षा है?
इन्हीं सवालों की सूची में स्कूल में बच्चों के घर की भाषा की उपेक्षा का सवाल भी है कि यह कब तक जारी रहेगा? किसी स्कूल में बहुभाषिकता का आदर्श मूर्त रूप कैसे पाएगा? क्या बच्चों के घर की भाषा (होम लैंग्वेज) अपने पूरे सम्मान के साथ स्कूल में वापसी करेगी? या फिर बच्चे इस भाषा समूह का होने नाते खुद के भीतर एक हीनभावना महसूस करते रहेंगे। जो उन्हें उनकी भाषा, संस्कृति और अपने लोगों के खिलाफ खड़ा कर देगी।
अगर शिक्षा ‘अपनेपन’ के इस अहसास को भी खा जाने पर आमादा है तो क्या यह सही मायने में शिक्षा है। या फिर बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था में फिट होने के लिए दिया जाने वाले प्रशिक्षण जहां हर चीज़ जरूरत के हिसाब से मुहैया कराई जाती है।
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