शैक्षिक प्रक्रिया में सार्थकता क्यों जरूरी है?
स्कूल में करने के लिए बहुतेरे काम होते हैं। जो शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा होने के नाते बतौर शिक्षक व शैक्षिक प्रशासन से जुड़े अधिकारी आपको करना ही होता है। पर उस काम को करने का उद्देश्य, उस काम को करने का तरीका, काम करने का जोश और काम करने की प्रेरणा ही आपके किसी काम को अर्थ देती है।
शिक्षा व्यवस्था के हर हिस्से में इस अर्थ का बचा रहना बेहद जरूरी है, इसके अभाव में अर्थपूर्ण लगने वाली तमाम चीज़ें भी निरर्थक हो जाती हैं। जैसे किसी कालांश में किसी विषय का शिक्षण निरर्थक हो जाता है, अगर बच्चे उसको समझ नहीं पा रहे हों। शिक्षक अगर किसी विषय को बच्चों के सामने सहजता के साथ रख रहे हों, जिससे बच्चों को उस विषय से जुड़ाव महसूस हो और वे उसे अपने जीवन के अनुभवों, परिवेश व पूर्व-ज्ञान से जोड़कर देख पाने में सक्षम हों तो पूरी प्रक्रिया उनके लिए अर्थपूर्ण हो जाती है।
सार्थकता की जरूरत
ऐसे संवाद में उनको आनंद भी मिलता है। उनकी जिज्ञासा को अभिव्यक्त होने के लिए स्पेश मिलता है। वे सहजता के साथ सवाल पूछ पाते हैं, जवाबों से संतुष्ट न होने पर फिर से सवाल करते हैं। भले ही उनके सवाल उस विषय से सीधे-सीधे संबंध रखते हों या फिर उस विषय और बच्चों के सवाल के बीच दूर का रिश्ता हो। बच्चों में सवाल पूछने या अपनी राय जाहिर करने की झिझक का अभाव ऐसी स्थिति में नहीं होता। जीवन के साथ-साथ शिक्षा में सार्थकता का पर्याय यही है कि आत्मीय संवाद की मौजूदगी बनी और बची रहे।
अगर इस प्रक्रिया का अगर मशीनीकरण कर दिया जाए तो क्या होगा? एक परिस्थिति की कल्पना करें जहाँ किसी स्कूल की लायब्रेरी में बच्चों को धड़ल्ले से किताबें दी जा रही हैं। मगर बच्चों से उनकी पसंद-नापसंद के बारे में नहीं पूछा जाता। किसी किताब के चुनाव के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता। किसी चुनाव पर कोई हैरानी नहीं जताई जाती, उनको किसी किताब को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाए तो उस किताब का मिलना बच्चे के लिए कोई विशेष बात नहीं होगा।
ऐसे में शायद इस बात का कोई गहरा मायने नहीं होगा कि वे कोई किताब चुन रहे हैं। किताब को चुनने की अपनी स्वतंत्रता का उपयोग कर रहे हैं। अपनी पसंद को अपनी अभिव्यक्ति दे रहे हैं। अपनी पसंद-नापसंद के साथ खड़े होना सीख रहे हैं। किसी विद्यालय में विभिन्न अवसरों पर बच्चा ऐसे सैकड़ों अनुभवों से सामूहिक रूप से रूबरू होता है। जो उसके जीवन को दिशा देने का काम करती हैं। उसे आत्मनिर्भर बनाती हैं।
कैसा हो संवाद?
अगर हम बच्चों के साथ आत्मीय संवाद नहीं करते, उनसे खुद सवाल नहीं पूछते कि वे क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, क्या सोच रहे हैं, किसी काम में उनको सबसे अच्छा क्या लगता है? तो हम शायद मानवीय संवाद के मशीनीकरण को प्रोत्साहित करने का एक जरिया भर बन रहे हैं। बेहद अर्थपूर्ण काम को मशीनीकृत ढंग से करके उसके अर्थ को खत्म कर रहे हैं।
ऐसी स्थिति किताब के पन्ने टटोलते उन बच्चों के जैसी हैं, जिनको पढ़ना नहीं आता। जो सारे दिन किताबों और पासबुक के साथ बैठे रहते हैं। अपनी बोरियत दूर करने के लिए पासबुक या किताब से अपनी कॉपी में कुछ-कुछ उतारते हैं और फिर छुट्टी होने पर घर लौटकर पसंदीदा खेलों और अन्य कामों में व्यस्त हो जाते हैं और स्कूल के दिन को बस्ते की तरह खूंटी पर टांग देते हैं।
आखिर में एक शिक्षक की बात
एक शिक्षक ने बड़े ग़ौर करने वाली बात कही जिसका रिश्ता भी सार्थकता के सवाल से है। उन्होंने कहा, “स्कूल में काम करते हुए पता नहीं चलता कि कब छुट्टी हो गई। मगर आप खाली बैठकर समय काटना चाहें तो वक्त बीतने का नाम नहीं लेता है।”
अगर स्कूल में खेल का कालांश नहीं होगा तो बच्चों को ऐसी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भागीदारी का मौका नहीं मिलेगा। इसका असर उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ेगा। वे ऐसे अवसरों से वंचित हो जाएंगे।
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