गुलज़ार की कविता ‘किताबें’
किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से ताकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबत मे कटा करती थी
अब अक्सर गुज़र जाती हैं कंप्यूटर के पर्दों पर
ऐसे में बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें………
उन्हें अब नींद मे चलने की आदत हो गयी है
जो क़दरें वो सुनाती थी कि जिनके ‘सेल’ कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आती नहीं हैं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधड़े उधड़े हैं
कोई सफ़हा पलटता हूँ तो एक सिसकी सुनाई देती है
कई लफ्ज़ो के माने गिर पड़े हैं
बिना पत्तो के सूखे तुंड लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई माइने नहीं उगते
ज़बां पर जो ज़ायक़ा आता था जो सफ़हा* पलटने का (पेज़)
अब उंगली क्लिक करने से
बस एक झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है पर्दो पर
किताबो से जो ज़ाती राब्ता था कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी मे लेते थे
कभी घुटनो को अपनी रिहल की सूरत बना कर
नीम* सजदे मे पढ़ा करते थे छुते थे जबीं* से (नीम- आधा / जबीं- माथा)
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो किताबो में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रुक़्क़े * (अक्षर)
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा?
वो शायद अब नहीं होंगे!!
ताकि इसे फिर से पढ़ा जा सके। इसके बारे में चर्चा कर सकें।
कविता तो अच्छी है पर इसे यहाँ पोस्ट करने का कारण जानना चाहूंगी।
बहुत अच्छा..
👍
very nice kavita gulzar ji
keep it up
यह कविता हमे बताती है की जो चीजे हमे सिखने मिलती है किताब से वह मुलय किसि से नहि मिलता!
Nice par can you right shiksha
एक शिक्षक साथी कहते हैं कि हम तो सूखे पौधे से भी सीख सकते हैं, यह तो गुलज़ार साहब की कविता है। जो भी अच्छा लगे सीख सकते हैं। किताबों के महत्व और पढ़ने की आदत के विकास को ध्यान में रखकर बात कर सकते हैं।