एक बच्चे का सपना, “ग़रीबों का मुफ्त इलाज और फ्री में पढ़ाई”
मेरा नाम कुछ भी हो सकता है। पर आपकी जानकारी के लिए बता हूँ कि मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता हूँ। मैं राजस्थान के एक गाँव में रहता हूँ। यहीं के स्कूल में पढ़ता हूँ।
मेरे स्कूल में अच्छा सा पुस्तकालय है। मेरा छोटा सा परिवार है। मेरी इच्छा है कि मैं बड़ा होकर डॉक्टर बनूं और गरीब लोगों का मुफ्त में इलाज करूं।
बड़ा होकर विद्यालय खोलुंगा
मैं बोर्ड परीक्षा में फर्स्ट पास होकर अपने स्कूल का नाम रौशन करना चाहता हूँ। मेरे स्कूल के बेस्ट टीचर पढ़ाई में हमारी मदद करते हैं। वहीं हमारे प्रधानाध्यापक खेल-कूद के साथ-साथ पढ़ाई में भी सहायता करते हैं। मैं कुंग फू कराटे जानता हूँ। मैं बड़ा होकर एक विद्यालय खोलना चाहता हूँ, जिसमें गरीब बच्चों को फ्री फंड में पढ़ाऊंगा।
किसी गाँव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों के मन में सामाजिक सरोकार की भावनाएं हैं। इन भावनाओं का रिश्ता आसपास की सामाजिक परिस्थितियों से हैं। बच्चों को अपने परिवेश में जिन चीज़ों की कमी महसूस होती है, वे जिन चीज़ों को महत्व देने की जरूरत समझते हैं उसे ही वे शब्द देते हैं। इस पूरी बातचीत का सार यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों और आदिवासी इलाक़ों में शिक्षा और स्वास्थ्य की सेवाएं बेहतर होनी चाहिए ताकि ग़रीब बच्चे भी उसका लाभ उठा सकें।
‘बाल सुलभ’ संवेदनशीलता की जरूरत
हाल ही में राँची में एक महिला को फर्श पर खाना परोसने वाली घटना के बारे में पढ़कर लगा कि समाज में संवेदनशीलता का लोप होता जा रहा है। पढ़े-लिखे होने का क्या मतलब है, अगर बाल सुलभ संवेदनशीलता की इंसान के जीवन में कोई जगह नहीं बची है। इस ख़बर के मीडिया में आने के बाद बहुत से आला-अधिकारी मौके पर पहुंचे और पूरी बात लोगों के सामने आई। अगर अस्पताल में थाली नहीं थी तो पत्तल का इंतजाम हो सकता था। अगर सरोकारों के लिए दिल में जगह होती तो रास्ता खोजा जा सकता था।
शिक्षा का यही लाभ है कि यह भविष्य की चुनौतियों के लिए इंसान को तैयार करती है। उसकी क्षमताओं का विकास करती है और वर्तमान में सर्वश्रेष्ठ विकल्प चुनने और बनाने की क्षमताओं से लैस करती है। इस घटना से भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए रास्ता खुलता है। मगर समाधान तो तब मिलेंगे, जब हम वास्तविक चुनौतियों को स्वीकार करें, अपनी ग़लतियों को स्वीकार करें और भविष्य में सुधार के लिए प्रयासरत रहें।
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