शिक्षा विमर्शः ‘प्राथमिक विद्यालयों की ख़स्ता हालत देखकर दुःख होता है’
अम्बेडकर विश्वविद्यालय में स्कूली शिक्षा के बदलते परिदृश्य में अध्यापन-कर्म की रूपरेखा पर केंद्रित विमर्श का सिलसिला दूसरे दिन भी जारी रहा।
सुबह के पहले सत्र में अपने पर्चे की भूमिका साझा करते हुए हिमांचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एजुकेशन में सहायक अध्यापिका प्रकृति भार्गव कहती हैं, “सरकारी विद्यालयों की खस्ता हालत देखकर दुःख होता है। यहां का वातावरण ऊर्जा विहीन है। पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का अभाव है। पाठ्यक्रम की विविधता का अभाव है। यहां के शिक्षकों में समूह में काम करने की प्रवृत्ति का अभाव है और प्रेरणा का स्तर कम है।”
कैसे निर्मित होती है शिक्षकों की पहचान
उन्होंने उत्तर प्रदेश के सरकारी विद्यालयों का जिक्र करते हुए कहा कि मात्र 36 प्रतिशत विद्यालयों में बिजली है। ऐसे में बाकी स्कूलों के शिक्षक गर्मी के दिनों में कैसे काम करते होंगे? ऐसे माहौल में वे खुद को कितना प्रेरित महसूस करेंगे, यह एक सोचने वाला सवाल है। सत्र के दूसरे दिन भी शिक्षकों के लिए सपोर्ट सिस्टम बने और उनके प्रेरणा का स्तर बढ़े यह मुद्दा बार-बार सवालों और चर्चाओं के जरिए सामने आ रहा था।
‘अध्यापक की पहचान’ विषय पर अपनी राय रखते हुए सुनीला मसीह जी ने कहा, “एक अध्यापक अपनी स्व-मूल्यांकन करके, आत्म-चिंतन व आत्म-विश्लेषण करके अपनी पहचान बना सकता है।” विज्ञान विषय से जुड़े अनुभवों को साझा करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने क्लासरूम में विज्ञान शिक्षण के लिए अनुकूल माहौल बनाया जहाँ बच्चे किसी पाठ को पढ़ें, प्रयोग करें, अवलोकन करें और खुद सवालों के उत्तर लिखें।
उन्होंने कहा कि हमने बच्चों को मौके दिए ताकि ने स्वयं प्रयोग करें। उसके बाद होने वाली चर्चा में हिस्सा लें और अपने निष्कर्ष पर पहुंचे और अगर निष्कर्ष ग़लत है तो फिर से प्रयोग को दोहराए। ऐसे प्रयासों से बच्चों का खुद पर भरोसा बढ़ता है और बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ता है। वे अपनी जिज्ञासा और सवालों को सही दिशा दे पाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि विद्यार्थी और अध्यापक के बीच खुला संवाद एक मुश्किल काम है, मगर तालमेल स्थापित करना जरूरी है ताकि क्लासरूम के माहौल को ज्यादा जीवंत बनाया जा सके।
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