भविष्य के शिक्षकों से हमारी अपेक्षा क्या है?
तीन दिवसीय शिक्षा पर केंद्रित सेमीनार में बहुत से परचे पढ़े गए। मनोहर चमोली की लिखी रिपोर्ट की दूसरी इसी कड़ी में पढ़िए शिक्षा विमर्श के अन्य मुद्दों के बारे में।
‘तकनीकी कक्षा से आई॰एस॰ओ॰प्रमाणित पाठशाला तक-सुपर टीचर का विलाप’ विषय पर एक पेपर किशोर दरक ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार के शैक्षिक प्रशिक्षण एवं अनुसंधान परिषद और जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान फिलहाल रचनात्मक बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं।
अभी तो सारे स्कूलों और अध्ययन कक्षाओं को डिजिटल बनाना भी अब अनिवार्य है। ज्यादातर उद्योगों में एवं कॉर्पोरेट कम्पनियों में गुणवत्ता का निर्देशक माना जाने वाला आईएसओ जैसा प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए अब स्कूल भी भारी संख्या में और गंभीर प्रयत्न कर रहे है।
‘नवाचारी शिक्षण’ के लिए डिग्री की क्या जरूरत?
शिक्षक की अहर्ता और अनर्हता पर कुछ सवाल पेपर एकलव्य,होशंगाबाद के अमित ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि जिनके पास शिक्षा की पेशेवर डिग्री और अधिकांशतया स्नातक की डिग्री भी नहीं होती। इसके बावजूद वे नवाचारी शिक्षा का एक उल्लेखनीय नमूना पेश करते हैं।
लेकिन साथ ही अकादमिक समझ को लेकर उनकी सीमाएँ हैं। व्यवहार और प्रयोग अच्छी तरह से करने के बावजूद वे इसके सैद्धान्तिक पक्षों की समझ कम रखते हैं।
एक मसला इस पद्धति के नीति में आ जाने का भी है। अगर हम ये मान लें कि पेशेवर डिग्री को अहमियत देने के बदले उच्च गुणवत्ता के सघन प्रशिक्षण के जरिए अच्छे शिक्षक बनाएँ जा सकते हैं जो कम समय देंगेए कम पैसा लेंगेण्ण्ण् तो फिर हम संविदा शिक्षकों के बने रहने और पूर्णकालिक नियमित शिक्षक के गैर.ज़रूरी होने को सैद्धान्तिक स्वीकृति प्रदान करते हैं।
मासिक बैठकों को अकादमिक बैठकों में कैसे बदलें?
शिक्षकों के पेशवर विकास के लिए संचालित मंचों के माध्यम से क्षमता विकास पेपर अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन,उत्तराखण्ड के सदस्य शोध समूह विपिन,प्रतीक व अनानास ने प्रस्तुत किया।
उन्होंने कहा कि वर्तमान में ऐसी बहुत सी नीतियाँ एवं क्रियान्वयन सम्बधी कठिनाइयाँ है जिनके चलते इन मासिक बैठकों को अकादमिक बैठकों के रूप में स्थापित करना एक चुनौतीभरा कार्य है. जिसमें संकुल समन्वयकों का नियमित अकादमिक क्षमतावर्धनए संकुल को लाइब्रेरी तथा लैब से सुसज्जित करना और संकुल समन्वयकों के कार्यदायित्व पर पुनःविचार करना आदि कारक शामिल हैं।
विद्यार्थी शिक्षकों से क्या हैं अपेक्षाएं?
नव उदारवाद काल में ‘विद्यार्थी शिक्षकों’ से अपेक्षाएं पेपर दिल्ली विश्वविद्यालय की छाया साहनी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षक प्रशिक्षण का एक अहम अंग स्कूली पद्धति से परिचित होना भी होता है।
इसके अर्न्तगत बीएलएड की छात्राएँ तीन महीने के लिए म्युनिसिपल प्राइमरी स्कूलों में जाती हैं और एक महीने के लिए मिडिल स्कूल में जाती हैं। मैं एक शिक्षक प्रशिक्षिका होने के कारण पिछले 20 सालों से बीएलएड की छात्राओं का अवलोकन करने के लिए इन स्कूलों में जाती रही हूँ।
छात्राएँ अपनी पाठ योजना और पठन चिन्तन में कई मुद्दों पर चर्चा करती हैं। इसके अलावा वे स्कूल की संस्कृूति, अध्याापन कार्य और स्कूली व्यवस्था पर अक्सर परस्पतर बातचीत भी करती हैं। इन चर्चाओं में छात्राएँ इन मुद्दों का वर्णन करती हैं जिसमें स्कूल के अध्यापक उनसे पढ़ानेके अतिरिक्त अन्य कार्यों में हाथ बटाने की अपेक्षा रखतेहैं। उदाहरण के तौर पर अकस्माँत उन्हें 9 वीं और 10 वीं कक्षा में प्रस्थानपित अध्यापक की भूमिका में भेज दिया जाता है। छात्राएँ न तो इस कार्य को करने के लिए सक्षम होती हैं और ही उन्हेंं पाठ योजना बनाने का समय मिल पाता है।
(एजुकेशन मिरर के साथ यह रिपोर्ट मनोहर चमोली ‘मनु’ जी ने साझा की है। इनका जन्म टिहरी, उत्तराखंड में हुआ। पत्रकारिता और क़ानून की शिक्षा के बाद अभी बतौर भाषा शिक्षक काम कर रहे हैं। ‘अंतरिक्ष के आगे बचपन’ और ‘जीवन में बचपन’ के अलावा 20 से ज्यादा कहानियां मराठी में भी प्रकाशित हो चुकी हैं। आपने दिल्ली के अम्बेडकर विश्वविद्यालय में संप्नन हुए तीन दिन के एजुकेशन सेमीनार पर विस्तार से लिखा है। इसलिए आपकी रिपोर्ट को सिलसिलेवार ढंग से प्रकाशित करते हैं ताकि पाठकों के लिए पढ़ने की सुविधा हो।)
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