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भूख से मरते बच्चों की तड़प हमें बेचैन क्यों नहीं करती?

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भारत में 93 लाख से ज्यादा बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं।

भारत का संविधान 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान करने की गारंटी देता है। इसके साथ ही बच्चों के लिए स्कूल में मिड डे मील का प्रावधान है ताकि उनको दोपहर में स्कूल में पका हुआ गरम और पौष्टिक खाना मिल सके।

आदिवासी अंचल, ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी क्षेत्रों में इसकी जरूरत और महत्व की खबरें आने के बाद भी भी मिड डे मील के विरोध में आवाज़ें बार-बार आती रही हैं। इसे कैश वाली स्कीम और पैकेज्ड फूड से बदलने की कोशिशें हो रही हैं, ऐसी ख़बरों से भी हमारा सामना होता रहा है।

‘मिड डे मील’ के लिए आधार क्यों चाहिए?

बीते महीनों में मिड डे मील के बारे में अपुष्ट आँकड़ों से ख़बरें लिखने का फ़ैशन चल पड़ा था कि आधार कार्ड से लिंक होने के बाद मिड डे मील में होने वाले भ्रष्टाचार में कमी आई है। ये सारी खबरें किसी ख़ास ऐजेण्डे के तहत लिखी जाने वाली ख़बरें थीं, जिनका उद्देश्य मिड डे मील योजना को बदनाम करना था। किसी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को शिक्षक जानते हैं। स्कूल में ऐसे बच्चे भी आते हैं, जिनका नामांकन नहीं होता, पर वे अपने बड़े भाई-बहनों के साथ स्कूल आते हैं। इसलिए स्कूल में मिड डे मील के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता समझ से परे हैं।

यह सीधे-सीधे बच्चों का अपमान है। उनके आत्म-सम्मान पर हमला है। आप भले ही गीत में हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है, गाते रहें। बच्चों को ईश्वर तुल्य बताते रहें, मगर सच्चाई कुछ और है। भारत में तकरीबन 21 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। भारत सरकार की एजेंसी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनपीएसएस) के अनुसार 93.4 लाख बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं। यह आँकड़े भारत को सूडान जैसी स्थिति में खड़ा कर देते हैं।

भूख से मरते बच्चों का ‘न्यु इंडिया’

द वायर पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, “सिमडेगा जिले में 11 साल की लड़की कथित रूप से भूख से तड़प-तड़प कर मर गई. आरोप है कि उसका परिवार राशन कार्ड को आधार से लिंक नहीं करा पाया जिसके चलते पिछले आठ महीने से उन्हें सस्ता राशन नहीं मिल रहा था. परिवार का कहना है कि संतोषी कुमारी नाम की इस लड़की ने 8 दिन से खाना नहीं खाया था, जिसके चलते बीते 28 सितंबर को भूख से उसकी मौत हो गई।”

यानि इस बच्ची की मौत के लिए शिक्षा तंत्र से लेकर, बाल अधिकारों के लिए काम करने वाला पूरा सरकारी अमला, राशन के लिए आधार को अनिवार्य बनाने वाले संबंधित लोगों पर आपराधिक मामला दर्ज़ होना चाहिए। हम कैसा नया भारत गढ़ रहे हैं, जिसमें बच्चे भूख से दम तोड़ रहे हैं, कुपोषण का शिकार हैं, स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में असमय ही मर रहे हैं। ऐसी असंवेदनशीलता स्वीकार करने योग्य नहीं है।

भूख ‘आधार’ नहीं जानती

सरकार की योजनाएं नागरिकों के लिए हैं। नागरिक सरकार की इन सेवाओं के लिए टैक्स देते हैं, यह योजनाएं किसी बच्चे पर कोई अहसान नहीं हैं। यह सरकार की जिम्मेदारी है। अगर उत्तर प्रदेश के कुछ ज़िलों में गर्मी की छुट्टियों में मिड डे मील परोसने को अनिवार्य कियाजा सकता है तो ऐसी परिस्थिति के लिए भी कोई प्रावधान होना चाहिए।

बच्चों की ऐसी मौतें, सामान्य मौतें नहीं हैं। यह शर्मशार करने वाली परिस्थिति है। नारों से भूख नहीं मिटती, रोटी से मिटती है। फिर भी हम जाने किस झूठे गर्व से कह पाते हैं कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’। परिस्थिति में बदलाव के लिए सच्चाई को स्वीकार करना जरूरी है, मगर जब पूरी कोशिश सच्चाई पर पर्दा डालने की हो जाए, तो मंज़िल मौत ही होगी। क्योंकि भूख सरकारी योजनाओं के नियम नहीं जानती। आधार नहीं जानती। जाति नहीं जानती। धर्म नहीं जानती। क्षेत्र नहीं जानती। विचारधारा नहीं जानती।

हमारा ‘विज़न’ क्या हो?

  • भूख से किसी बच्चे की मौत न हो और भारत का हर बच्चा स्वस्थ हो।
  • कुपोषित बच्चों को मदद मुहैया कराने के लिए पोलियो जैसा व्यापक अभियान चले और अगले कुछ सालों की निश्चित रूपरेखा बने।
  • हर स्कूल आने वाले बच्चे को मिलने वाले ‘मिड डे मील’ को संतुलित आहार में बदला जाये।
  • मिड डे मील के लिए आवंटित राशि में बढ़ोत्तरी हो। इसके लिए समुदाय से भागीदारी का लक्ष्य भी रखा जा सकता है।
  • गाँव के स्तर पर गरीब परिवारों की पहचान की जाये और वहां रहने वाले बच्चों को हॉस्टल की सुविधा दी जाये। ताकि उनके रहने और खाने का पर्याप्त इंतजाम हो सके।
  • गरीब परिवारों को मिलने वाले राशन के लिए आधार की अनिवार्यता तत्काल समाप्त की जानी चाहिए।

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