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नई शिक्षा नीति-2019 के ड्राफ्ट में त्रिभाषा फॉर्मूले पर विवाद क्यों हो रहा है?

नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट-2019 को लेकर पूरे देश में चर्चाओं का दौर जारी है। कुछ प्रस्तावों के लेकर समर्थन हो रहा है तो कुछ प्रस्तावों पर भारी विरोध भी हो रहा है। दक्षिण के राज्यों द्वारा उनके ऊपर हिन्दी भाषा थोपने की आशंका को लेकर विवाद ने राजनीतिक हलकों में हलचल पैदा कर दी है। इस मुद्दे पर तमिलनाडु में डीमके सहित अन्य क्षेत्रीय दलों ने तीन भाषा फॉर्मूले का कड़ा विरोध किया है। इस बारे में तमिलनाडु सरकार का कहना है कि वह राज्य में दो भाषा वाले फॉर्मूले (तमिल और अंग्रेजी) को जारी रखेगी।

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के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा तैयार की गई नई शिक्षा नीति-2019 का ड्राफ्ट शुक्रवार को भारत के मानव संसाधन विकास मंत्री को सौंपा गया था। इसके बाद इस ड्राफ्ट रिपोर्ट को सुझाव व चर्चा के लिए सार्वजनिक कर दिया गया था।

‘हिन्दी’ को अनिवार्य करने के प्रस्ताव का विरोध

भारत के मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने इस मुद्दे पर कहा, “नई शिक्षा नीति को लेकर जो कमेटी गठित हुई थी, उस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट दी है। इसे कमेटी की रिपोर्ट को मंत्रालय ने प्राप्त किया है, यह नीति नहीं है। ड्राफ्ट रिपोर्ट के ऊपर लोगों के सुझाव लेने के लिए उसे शेयर किया गया है। हमारे प्रधानमंत्री और हमारी सरकार ने पहले से यह तय किया है कि हम सभी भारतीय भाषाओं का पूरी ताकत के साथ सम्मान करेंगे और उसका विकास करेंगे। किसी भी प्रदेश पर कोई भी भाषा थोपी नहीं जाएगी।”

नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में ग़ैर-हिंदी भाषी राज्यों के लिए क्षेत्रीय भाषा के साथ हिंदी व अंग्रेजी को शामिल करने की बात कही गई है। इसी का विरोध विभिन्न राज्यों में राजनीतिक दलों द्वारा किया जा रहा है।

पढ़ेंः क्या है तीन भाषा वाला फॉर्मूला?

‘हिन्दी पट्टी में भी हिन्दी का पर्चा ऐच्छिक होना चाहिए’

भाषा के मुद्दे पर होने वाले विमर्श में एक बेहद गौर करने वाली टिप्पणी वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के. रे की तरफ से आई है। वे कहते हैं, “त्रिभाषा विधि के अनुसार ‘हिंदी’ को कथित रूप से थोपे जाने के प्रस्ताव पर रार होना स्वाभाविक है। ‘हिंदी’ पट्टी के ‘ज्ञानियों’ की यह पुरानी फ़ंतासी रही है. इस मुद्दे पर मेरी राय है कि न सिर्फ़ अन्य हिस्सों में, बल्कि ‘हिंदी’ पट्टी में भी ‘हिंदी’ का पर्चा ऐच्छिक होना चाहिए. पढ़ाई का माध्यम भले हिंदी हो, पर अंग्रेज़ी पर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए. ख़ैर, उस बहस में पड़े बिना यह जानना दिलचस्प है कि प्रतिष्ठित स्कूलों में (जहाँ बड़े-बड़े लोगों के बच्चे शिक्षा पाते हैं) अंग्रेज़ी के अलावा कुछ विदेशी भाषाओं को सीखने का भी विकल्प दिया जाता है.”


वे आगे कहते हैं, “शायद कुछ केंद्रीय और विशिष्ट सरकारी विद्यालयों में भी ऐसी व्यवस्था है. यह दुर्भाग्यपूर्ण ज़रूर है, पर ऐसा जान-बूझकर किया जाता है कि एक ख़ास विचारधारा के लोग ‘हिंदी’ पट्टी में राजनीतिक लाभ के लिए शिक्षा नीति को एक ‘भाषा’ और कुछ मिथकों के इर्द-गिर्द लाकर सीमित कर देते हैं. जिन क्षेत्रों में जो भाषाएँ हैं, उन पर ध्यान दिया जाए. विलुप्त हो रहीं, हाशिए पर धकेली जा रहीं भाषाओं को बचाया जाए. सुदूर दक्षिण में किसी बच्चे को ‘क ख ग घ’ सिखाने और ‘एनपीए बैंक में आपका स्वागत है’ का बोर्ड टाँगने से भाषा का विकास नहीं होता है।”

त्रिभाषा फॉर्मूले पर क्या कहता है एनसीएफ-2005?

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 में कहा गया है, “अपनी मूल भावना में त्रिभाषा सूत्र हिंदी भाषा राज्यों के लिए हिन्दी, अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं (ख़ासकर दक्षिण भारतीय भाषा) का और हिंदीतर राज्यों के लिए क्षेत्रीय भाषा, हिन्दी व अंग्रेजी का प्रावधान प्रस्तावित करता है। लेकिन इसके प्रति प्रतिबद्धता से ज्यादा इसका अतिक्रमण करते हुए ही पाया गया है। हिन्दी राज्य, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत तथा ग़ैर-हिन्दी राज्य ख़ासकर तमिलनाडु द्विभाषी फॉर्मूले को अपनाए हुए हैं। तथापि बहुत सारे राज्य त्रिभाषा सूत्र को अपनाए हुए हैं जैसे उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और कुछ अन्य राज्य।”

इसकी अन्य सिफारिशों में कहा गया है कि प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षण का माध्यम सीखने वाले की मातृभाषा ही होनी चाहिए। बाद की स्कूली शिक्षा में शिक्षण का माध्यम मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में होना चाहिए। लेकिन केंद्रीय व नवोदय विद्यालयों में, जहाँ हिन्दी और अंग्रेजी का प्रयोग पहली कक्षा से ही होने लगता है वहाँ इसे बरकरार रखा जा सकता है। इसमें आगे कहा गया है कि अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में भी मातृभाषा का एक माध्यम के रूप में प्रयोग होना चाहिए और शिक्षार्थी को एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने की छूट होनी चाहिए।

प्राथमिक कक्षाओं में ‘भाषा शिक्षण’ को मिले प्राथमिकता

जब उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी भाषी राज्य में विद्यार्थी बड़े पैमाने पर 10वीं व 12वीं के हिंदी विषय में भारी संख्या में फेल हो रहे हों तो बाकी राज्यों के लिए हिंदी अनिवार्य करने पर हैरत ही होती है। बच्चों के पास विकल्प होना चाहिए कि वे किस माध्यम में पढ़ना चाहते हैं।

हाल ही में दिल्ली के जेएनयू विश्वविद्यालय में हिन्दी माध्यम में प्रवेश परीक्षा देने के विकल्प को समाप्त कर दिया गया है। आईएएस जैसी शीर्ष प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी का पर्चा अनिवार्य किये जाने के कारण बहुत से छात्र प्रतिभाशाली व क्षमतावान होने के बावजूद प्रतिस्पर्धा से से बाहर हो गए। हिन्दी माध्यम से सिविल सेवा में चयनित होने वाले विद्यार्थियों की संख्या के हाल के वर्षों में काफी घटी है, इसको लेकर भी हिन्दी भाषा राज्यों में चिंता जाहिर की जा रही है। इसका समाधान करने की जरूरत है। भाषाओं के नाम पर राजनीति हो रही है, होती रहेगी। लेकिन अपने ऊपर कोई भाषा थोपने का विरोध स्वाभाविक है और राजनीति में इस विरोध का बचाव भी स्वाभाविक है।

आखिर में कहा जा सकता है कि प्राथमिक स्तर पर भाषा शिक्षण को मजूबत करने की जरूरत है ताकि बच्चे एक से ज्यादा भाषाओं में अपनी क्षमता का विकास कर सकें। पहली बार स्कूल आने वाले बच्चों के साथ स्थानीय भाषाओं/बोलियों में संवाद जरूरी है ताकि स्कूली परिवेश में उनका आत्मविश्वास बना रहे और वे अज़नबी न महसूस करें। प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी शिक्षण पर ध्यान देने से उच्च शिक्षा में अंग्रेजी भाषा के एकमात्र विकल्प बचे रहने वाली स्थिति में भी विद्यार्थियों को मदद मिलेगी।

2 Comments on नई शिक्षा नीति-2019 के ड्राफ्ट में त्रिभाषा फॉर्मूले पर विवाद क्यों हो रहा है?

  1. MD Dilshad // June 2, 2019 at 4:09 pm //

    बहुत अच्छा विश्लेषण किया मगर आपने शिक्षक बहाली के बारे में कुछ नहीं लिखा।
    शिक्षक नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव लाने की बात कहीं गई है जिसमें टीईटी का विस्तार, नेट परीक्षा, साक्षात्कार और प्रदर्शन की बात शामिल है जो शिक्षक भर्ती में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगी।

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