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शिक्षक इंटरव्यू सिरीज़ः “विषय को ‘समझाने’ से पहले बच्चों को समझना है जरूरी- सविता प्रथमेश”

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एजुकेशन मिरर की ‘शिक्षक इंटरव्यु सिरीज़’ का उद्देश्य शिक्षकों के संघर्ष, जिजीविषा, नेतृत्व, जूझने और सीखने की ऐसी कहानियों को सामने लाना है जो सच में प्रेरित करने वाली हैं। शिक्षक के पेशे के प्रति नई उम्मीद जगाती हैं। शिक्षकों को वास्तविक नेतृत्वकर्ता के रूप में देखती हैं, जो नेपथ्य में भी नेतृत्व की असीम संभावनाओं का निर्माण करते हैं। पहले इंटरव्यु में एजुकेशन मिरर पर पढ़िए छत्तीसगढ़ से सविता प्रथमेश से एजुकेशन मिरर की बातचीत के प्रमुख अंश। आपके पास 30 वर्षों से ज्यादा शिक्षण का अनुभव है। प्रकृति की गोद में रहना और जीव-जंतुओं से लगवा व उकी देखभाल आपकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है। तो विस्तार से पढ़िए यह इंटरव्यु और लिखिए अपनी टिप्पणी।

एजुकेशन मिररः सविता प्रथमेश जी आपका बचपन कहाँ बीता और उन दिनों को आप कैसे याद करती हैं?

सविता प्रथमेश: मूल रूप से हम लोग छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से रहने वाले हैं। पिता जी लोगों का जरूर नागपुर से वास्ता था। तीस-चालीस साल पहले के बचपन में किताबें और पुस्तकें थीं। सुनने के नाम पर मनोरंजन के लिए घर में केवल रेडियो हुआ करता था। हमारे पिता जी पढ़ने-लिखने के बहुत शौकीन थे, वे उर्दू में भी लिखा करते थे। तो इसलिए पढ़ने का माहौला था। पापा को इंग्लिश के उपन्यास पढ़ने का खूब शौक था। लेकिन मेरी रुचि इंग्लिश के उपन्यासों में नहीं रम पाई।

मेरे परिवार में गुड़िया, नंदन, पराग जैसी बच्चों की पत्रिकाएं आती थीं। इसके अलावा धर्मयुग, सारिका, दिनमान जैसी बड़ों की पत्रिकाएं भी आती थीं। इनमें से कुछ पत्रिकाओं में मैंने लेखन भी किया। जब पत्रिका देने वाला घर में आता था तो चार बहनों और दो भाइयों के बीच में इस बात को लेकर लड़ाई होती थी कि कौन पहले पत्रिका लेगा? जिसके पास पत्रिका आती थी वह उसे पूरा पढ़ लेता था, तब दूसरों को उस पत्रिका को पढ़ने का मौका मिलता था। इस तरह से किताबों के प्रति ललक का विकास मेरे भीतर बचपन से हुआ। मनोरंजन के नाम पर बहुत से खेल थे जैसे रस्सी कूद, छुपम-छिपाई। अपने भाई के दोस्तों के साथ पतंग उड़ाना, पतंग के मांझे बनाने की यादें मेरे साथ अब भी हैं।

एजुकेशन मिररः पहली बार आपके मन में शिक्षक बनने का विचार कब आया? आपको कब लगा कि मुझे भी शिक्षक बनना चाहिए? यह यात्रा कैसे शुरू हुई?

सविता प्रथमेश: व्यक्तिगत रूप से मेरे मन में ऐसा कोई विचार नहीं था। आप यह भी कह सकते हैं कि मैं अवसर मिलने के कारण शिक्षिका बनी, लेकिन अब यह अवसर से चुनाव वाली स्थिति में आ चुका है। क्योंकि हमारे समय में प्रशासनिक सेवाओं में जाने का बड़ा क्रेज़ था, हर अभिभावक चाहता था कि उसके बच्चे प्रशासनिक सेवा में जाएं। क्योंकि हमारे पिताजी का सामान्य ज्ञान और इंग्लिश बहुत अच्छी थी, इसलिए उनकी मुझसे अपेक्षा थी कि मैं प्रशासनिक सेवा में जाऊं। उस समय मेरे घर में कंपटीशन सक्सेस रीव्यु पत्रिका आती थी, जिसके मुख्य पृष्ठ पर सिविल सेवा में सफल लोगों की फोटो होती थी और पत्रिका के अंदर वाले हिस्से में उनका साक्षात्कार होता था तो मैं कक्षा छठीं-सातवीं से मेरी भी पढ़ने की आदत हो गई थी।

स्नातक की अंतिम परीक्षा में मैंने राज्य स्तरीय सिविल सेवाओं की परीक्षा दी, लेकिन मेरा झुकाव उस तरफ ज्यादा नहीं था इसलिए परिणाम में अपेक्षा के अनुसार नहीं था। वास्तव में मेरी रुचि लेखन और पत्रकारिता में थी। मैं पत्रकारिता में आगे बढ़ना चाहती थी, लेकिन उस समय बिलासपुर में पत्रकारिता का काम करने की सुविधा नहीं थी, इसके लिए बाहर जाना पड़ता। इसलिए पत्रकारिता के प्रोफ़ेशन में आना नहीं हुआ। स्नातक करने के बाद बीएड करने का मौका मिला और फिर इसी फील्ड की होकर रह गई। एक शिक्षक का काम मेरे स्वभाव के अनुकूल है, इसमें आपको हर रोज़ कुछ रचनात्मक और नया करने का अवसर मिलता है।

एजुकेशन मिररः पहली बार जब आपको किसी स्कूल में पढ़ाने का मौका मिला तो आपके कैसे अनुभव रहे?

सविता प्रथमेश: मुझे पहली बार स्कूल में पढ़ाने का मौका स्नातक के बाद बीएड करके हुए मिला। बीएड की टीचिंग के दौरान लड़कियों के एक स्कूल में पढ़ाने का अवसर मिला। यह अनुभव सबका लगभग एक जैसा होता होगा। वास्तविक अनुभव जब हम एक शिक्षक के रूप में काम करने लगते हैं,तब आता है हमें ऐसा लगता है मुझे। संयोग मेरी नौकरी बिलासपुर से 21 किलोमीटर दूर एक गाँव में लगी।

स्कूल की छुट्टी के बाद को वापसी के लिए आने वाली ट्रेन से लेट हो जाती थी। बड़ी मुश्किलों से मैंने वहाँ पर दिन बिताए। लेकिन हमारे प्रिंसिपल बहुत अच्छे थे। उन्होंने पिता की तरह मुझे बहुत सारी चीज़ें सिखाईं। उन्हीं के सानिध्य में रहकर मैंने असल शिक्षक कैसा होता है यह जाना जैसे पढ़ाई कैसे होती है, बच्चों के साथ कैसे पेश आना चाहिए। यह वर्ष 1990 की बात है उस समय मेरी उम्र भी 23-24 साल की थी, जिस जगह पर मैं पढ़ाने के लिए गई थी वह एक ग्रामीण क्षेत्र का स्कूल था जहाँ मुझे 11वीं व 12वीं के बच्चों को पढ़ाना था। वे बच्चे मुझे ज्यादा बड़े लगते थे। उन बच्चों को देखकर बड़ा डर सा लगता था। थोड़ी भाषा की भी समस्या थी, वे बच्चे छत्तीसगढ़ी बोलते थे जबकि मेरी भाषा हिन्दी थी। धीरे-धीरे बच्चों ने भी मुझे समझा और मैंने उनको भी समझने का प्रयास किया। बच्चों के साथ समायोजन बैठाने में समय तो लगता है, ख़ासतौर पर जब आपकी उम्र कम होती है।

ख़ासकर आप पहली बार नौकरी में जाते हैं, विशेषकर जब विद्यार्थी किसी लड़की को एक शिक्षक के रूप में अपने सामने पाते हैं। एक शिक्षक के रूप में किसी लड़की के लिए लड़कों की शिक्षिका होना थोड़ी सी पशोपेश वाली स्थिति रहती है। आपको मालूम है पितृसत्तात्मक समाज में लड़कों की जिस तरह से परवरिश होती है उसमें निश्चित तौर वे महिलाओं को थोड़ा सा कमतर मानकर देखते हैं, इसलिए जब कोई लड़की उनको पढ़ाने के लिए एक शिक्षक के रूप में आती है तो शुरू में वे हावी होने की कोशिश करते हैं। लेकिन थोड़े दिनों बाद सब ठीक हो जाता है। यह शिक्षक के ऊपर काफी हद तक निर्भर करता है कि इस स्थिति का समाधाम कैसे कर या फिर इसी स्थिति को आगे भी जारी रहने दे।

एजुकेशन मिररः बच्चों को लेकर कौन सी नई बातें आपको एक शिक्षक के रूप में काम करते हुए पता चलीं जिनपर पहले आपका बहुत ज्यादा ध्यान नहीं गया?

सविता प्रथमेश: अपने स्कूली जीवन में मैं बहुत शर्मीली बच्ची थी। दोस्तों का दायरा सीमित था, तो बहुत सारी चीजें मुझे नहीं मालूम थीं। लेकिन एक शिक्षक के रूप में अब वे बातें मुझे मालूम हो रही हैं। जैसे अगर किसी बच्चे ने कोई गड़बड़ी की है तो कोई भी बच्चा आपको नहीं बताएगा कि किसने ग़लती की है। 40 या 60 बच्चों की कक्षा में कोई इस बात को नहीं बताता कि ग़लती किसने की है। कह सकते हैं कि बच्चों के बीच में एक अघोषित समझौता सा होता है। बच्चों के मनोवैज्ञानिक सुरक्षा के लिए शायद यह जरूरी भी है। बच्चों का मनोविज्ञान देखने व समझने से बहुत सारी चीज़ें पता चलती हैं। बच्चे भी सोचते हैं, उनका एक व्यक्तिव होता है।

एक अभिभावक या शिक्षक के रूप में कई बार हम बच्चों को कम करके आँकते हैं। उनके साथ बराबरी का व्यवहार नहीं कर पाते यानि उनकी भावनाओं का ध्यान नहीं रख पाते। हम एक शिक्षक बच्चों को समझना बेहद जरूरी है। हम विषय को तो समझ जाते हैं लेकिन बच्चों को हम वास्तव में तब समझते हैं जब बच्चों से हमारा बच्चों से संबंध बेहतर होगा। इसके लिए हमारा बच्चों से जुड़ाव रखना होगा और उनतक जाना होगा। उदाहरण के तौर पर अगर किसी दिन कोई बच्चा स्कूल नहीं आया है तो हमें तलाशना होगा कि क्या कारण है? हमारे स्कूल का कोई बच्चा व्यक्तिगत तौर पर किस स्थिति से गुजर रहा है, यह जानना बेहद जरूरी है।

एजुकेशन मिररः आपने बच्चों को समझने के लिए व्यक्तिगत तौर पर क्या-क्या तरीके अपनाए?

सविता प्रथमेश: जब मुझे साल भर के लिए एक स्कूल को देखने का मौका मिला। मेरे स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से कमज़ोर पृष्ठभूमि वाले थे। बच्चे निजी स्तर पर तमाम समस्याओं से गुजर रहे होते हैं और हम विषयगत शिक्षण से काम चला रहे होते हैं। हम बच्चे को समझकर उनके साथ पेश आना बड़ा मुश्किल काम होता है। लेकिन हम 5-6 शिक्षकों ने मिलकर इस काम को करने का प्रयास किया।बच्चों से जुड़ा एक ऐसा ही अनुभव दैनिक भास्कर के रसरंग में प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था, “थैंक्स हर्ष मेरा नज़रिया बदलने के लिए।“ मैंने अपने स्कूल में प्रयास किया कि हमारे पास हर बच्चे के घर का फोन नंबर हो ताकि हम स्कूल नहीं आने पर हम बात करके जानकारी हासिल कर सकें।

एक बच्चे की रियल लाइफ़ स्टोरी

मेरे विद्यालय में एक बच्चे का व्यवहार बदला-बदला सा लगा। बच्चे ने स्कूल आना कम कर दिया। पिता से बात हुई तो पता चला कि उनकी आर्थिक स्थिति बड़ी कमज़ोर थे। बच्चे के बारे में पिता ने बताया कि जब यह बच्चा चौथी या पाँचवीं में था तो उसकी माँ ने आत्महत्या कर ली थी। यह घटना बच्चे के सामने घटी थी। बच्चा वो दृश्य आजतक भूला नहीं था। बच्चे तो माँ को नहीं भूल पाते लेकिन जैसा कि सामान्यतौर पर होता है पिता ने बच्चे के भविष्य के लिए दूसरी शादी कर ली। पिता की शादी के बाद घर में दूसरी जो माँ आई उनसे बच्चे को माँ जैसा प्यार नहीं मिल पाया। इसके कारण बच्चे का व्यवहार बदलता चला गया।

जब बच्चे के बारे में हमें यह बात पता चली तो उस बच्चे के प्रति हम सभी का नज़रिया बदल गया। हम आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले उस बच्चे को एक अलग नज़र से देखने के लगे। हम सोचने लगे कि हमारी ज़िंदगी में छोटी-मोटी समस्या आ जाती है तो हम परेशान हो जाता हैं। यह तो इतना छोटा सा बच्चा है जो इतनी सारी पीड़ा और इतना सारी भय लेकर जीवन जी रहा है। अगर हम भूल से भी उसके साथ रूखा व्यवहार करते हैं तो वह बच्चा कहाँ जाएगा? हमने जब बच्चे के प्रति अलग तरीके से व्यवहार करना शुरू किया तो बच्चे का मन पढ़ाई में लगने लगा। बच्चे अपने जीवन में सामंजस्य बैठा पाएं यह ज्यादा बड़ी बात है।

‘विषय को समझाने से पहले, बच्चों को समझना है जरूरी’

हमारी शाला के पीछे एक बच्ची रहती थी। उसका नाम अनामिका (बदला हुआ नाम) था। वह 10वीं कक्षा में एडमीशन के लिए स्कूल में दादा जी के साथ आई। उसका नाम मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने कहा कि उसका बहुत सुंदर नाम है। बच्ची स्कूल में नियमित आने लगी। दादा जी ने कहा कि बच्चे पिछले स्कूल में नियमित नहीं थी वहाँ इसका मन नहीं लगता, लेकिन अभी नियमित आती है। लेकिन खाने की छुट्टी के समय या क्लास में किसी शिक्षक के आने पर बच्ची रोने लगती थी। उसका घर पास था तो वह घर चली जाती थी। ये सारी बातें बहुत बार होती थीं। हमें उस बच्चे की पारिवारिक पृष्ठभूमि का जरा सा भान भी नहीं था। मैंने अपने स्कूल की साथी शिक्षिका से कहा कि चलो बच्ची के घर चलते हैं देखते हैं कि वह कैसे माहौल में रह रही है? हमने देखा कि घर में बच्ची दो बुजुर्गों अपने दादा-दादी के साथ रहती थी।

बच्ची जब छठीं कक्षा में पढ़ती थी तो पिता जी का घर लौटते समय एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। बच्ची ने उस दुर्घटना को अपने सामने होते हुए देखा तो उसके अवचेतन में यह बात गहरे बैठ गई। बच्ची की माँ ने दूसरी शादी कर ली तो बच्ची अपने दादा-दादी के पास अकेली रह गई। दादा-दादी के अलावा उस बच्ची का कोई नहीं है। वह बच्ची ट्युशन भी पढ़ने जाती थी, वहाँ के शिक्षकों ने भी बताया कि वह परेशान रहती है। हम थोड़े-थोड़े अंतराल पर उसके घर जाते हैं ताकि उसका परामर्श कर सकें और उसकी ज़िंदगी को सामान्य बनाने में सहयोग कर सकें।

एक शिक्षक के रूप में जब हम पढ़ाने के लिए जाते हैं तो कोशिश करें कि हमारा ध्यान केवल विषय की पढ़ाई तक सीमित न रहे। हम बच्चों को भी समझें कि वे किस शारीरिक, मानसिक और पारिवारिक स्थिति से गुजर रहे हैं। तभी हम बच्चों को सही तरीके से मदद कर सकेंगे। अगर बच्चे किसी सामग्री को सीखने या ग्रहण करने योग्य ही नहीं रहेंगे तो उनका सीखना कैसे होगा? विषय को समझाने के पहले बच्चों को समझना बहुत जरूरी है।

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5 Comments on शिक्षक इंटरव्यू सिरीज़ः “विषय को ‘समझाने’ से पहले बच्चों को समझना है जरूरी- सविता प्रथमेश”

  1. Bhaskar Choudhury // July 7, 2020 at 5:27 pm //

    सचमुच बच्चे को केवल पाठ्यपुस्तक पढ़ाना, स्कूल के छ:सात घंटो के प्रतिदिन बिताए कुल समय में पाँच-छ: वाक्य कह या सुन लेना काफी नहीं है बल्कि उसकी पृष्ठभूमि, दिनचर्या से लेकर उसके सर्वांगीण विकास से जुड़े अनेक प्रश्नों के उत्तर ढूंढने का सतत प्रयास करना एक शिक्षक का काम है जिसके लिए गहरी संवेदनशीलता और पूर्ण समर्पण की ज़रूरत होती है… सविता प्रथमेश जी का साक्षात्कार इसी के तरफ ईशारा करता है। प्रथमेश जी एवं एजुकेशन मिरर की टीम को साधुवाद।

  2. Durga thakre // July 2, 2020 at 4:33 pm //

    आपका कहना बिल्कुल सही हैं ,बच्चों के मन को समझना और उनसे जुड़ना बहुत ही आवश्यक है । यही हमे शिक्षक बनने और बेहतरीन कार्य करने की प्रेरणा देते हैं ।

  3. Kaptan gurjar // July 2, 2020 at 8:47 am //

    जब छात्र किसी ऐसी भाषा में लिखा गया पाठ पढत़े हैं जिसे वे सीख रहे हैं, जैसे अंग्रेजी, तब उनका ध्यान उन शब्दों या उन व्याकरण सम्बन्धी रचनाओं पर केन्द्रित रहता है जिन्हें वे नहीं समझते हैं या नहीं जानते हैं इसका मतलब यह है कि वे जो कुछ पढ़ रहे हैं जैसे किसी कहानी की घटनाऍ या लेखक के तर्क आदि तो वे उसके समग्र अर्थ पर ध्यान नहीं देते हैं।इसलिए शिक्षक को बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार रखकर बच्चों से ख़ूबसारी चर्चा करें ताकि बच्चे सहज महसूस करे की आप उनके सबसे अच्छे शिक्षक हो जैसा कि सविता मेम ने बच्चों की हर परिस्थिति को समझने का प्रयास किया और अंत मे सफ़ल हुई। हम सब शोभाग्यशाली है कि हमें सविता मेम व इनकी तरह कई ऐसे शिक्षक है जो बच्चों के भविष्य को लेकर दिनरात मेहनत करते हैं।
    धन्यवाद,

  4. Dharam suta // July 2, 2020 at 8:26 am //

    ,यह बात तो एकदम सही है कि बच्चों को समझना चाहिए और एक शिक्षक को मां की तरह संबंध बनाने की कोशिश कर नी चाहिए।

  5. Nandini rathore // July 2, 2020 at 7:47 am //

    किसी भी छात्र के जीवन में शिक्षक की भूमिका अहम और अविस्मरणीय होती है। अतः एक शिक्षक अपने छात्रों के न केवल अकादमिक विकास को सुनिश्चित करता है वरन उनके मनोवैज्ञानिक पक्ष को भी दृढ़ता प्रदान करता है। हम भाग्यशाली हैं कि हमें ऐसे शिक्षक मिले। नमन🙏 है सविता जी और ऐसे अन्य शिक्षकों को।

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