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संज्ञानात्मक विकास: सीखने, संज्ञान और स्मृति के बीच क्या संबध है?

संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, “विचारों के माध्यम से किसी चीज़ का ज्ञान हासिल करने की प्रक्रिया ही संज्ञान है। इसमें किसी विचार पर ध्यान केंद्रित करना (अवधान), चिंतन, तर्क और स्मरण शक्ति का उपयोग होता है।” यहाँ ग़ौर करने वाली बात है कि यह सभी प्रक्रियाएं हमारे मस्तिष्क के सेरेब्रिल कॉर्टेक्स में नामक हिस्से में घटित होती हैं।

जब हमने अपने आसपास के परिवेश और अनुभवों से सूचनाएं हासिल करते हैं वे हमारी अल्पकालीन या दीर्घकालीन स्मृति का हिस्सा बन जाती हैं। इनको रिकॉल करते समय जब कोई संकेत मिलता है तो वे फिर से हमारी सक्रिय स्मृति या वर्किंग मेमोरी का हिस्सा बन जाती हैं। जब हम किसी काम पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो वास्तव में अपनी सक्रिय स्मृति का इस्तेमाल कर रहे होते हैं। इस दौरान हम अपने काम से संबंधित सभी सूचनाओं को व्यवस्थित तरीके से इस्तेमाल कर रहे होते हैं।

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स्मृति के बनने और रिकॉल होने का पूरा सूचना तंत्र न्यूरॉन्स के प्रवाह के माध्यम से काम करता है, न्युरॉन्स का प्रवाह जिस पथ पर बार-बार होता है हम उस स्मृति से परिचित हो जाते हैं। कुछ नया होने पर न्युरॉन्स के प्रवाह में भी परिवर्तन होता है ताकि नई सूचनाओं को भविष्य या आगामी उपयोग के लिए भण्डारित किया जा सके। हमें भाषा के माध्यम से ही यह शक्ति मिलती है ताकि हम समझ सकें कि क्या हो रहा है। हम भाषा के माध्यम से ही आगामी भविष्य में होने वाली चीज़ों की भविष्यवाणी भी कर सकते हैं।

हम सीखते कैसे हैं?

इन सारी चीज़ों का रिश्ता वास्तव में इस सवाल से है कि हम सीखते कैसे हैं और सूचनाएं कैसे हासिल करते हैं? इसके लिए हम हर चीज़ को सूचना के रूप में तब्दील करके देखने की कोशिश करेंगे ताकि संज्ञान की प्रक्रिया को ज्यादा सटीक ढंग से समझ सकें।

हम जो कुछ भी नया सीखते हैं, वह हमारे लिए किसी न किसी सूचना के रूप में सामने आता है। यानि सूचना एक उद्दीपक के रूप में आती है, इसनई सूचना को मस्तिष्क द्वारा प्रॉसेस किया जाता है और इसके बाद एक ख़ास तरह का व्यवहार या प्रतिक्रिया हमारे द्वारा की जाती है। वास्तव में यह पूरी प्रक्रिया बेहद तेज़ी से होती है। कभी-कभार तो एक मिनट के भी छोटे हिस्से में पूरी प्रक्रिया संपन्न हो जाती है और हम नई सूचना पर प्रतिक्रिया भी व्यक्त कर देते हैं।

इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं कि जब कोई दो लोग बात कर रहे होते हैं तो आवाज़ों के रूप में मस्तिष्क को इनपुट मिलते हैं और इसके आधार पर वे एक-दूसरे के बारे में समझ विकसित करते हैं। इस समझने को ‘अचानक से कूछ चमकने’ या किसी सूचना का अर्थ निर्माण करने और उसे समझने के रूप में देखा जा सकता है।

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उद्दीपन का कारण भी मस्तिष्क के भीतर ही होता है, मस्तिष्क का एक हिस्सा उसके अन्य हिस्सों को सक्रिय बना देता है।  उदाहरण के तौर पर संरचनावाद में एक ही सूचना के अलग-अलग बच्चों के लिए अलग-अलग अर्थ होते हैं। यह विभिन्न सबके अपने परिवेशीय अनुभवों की विभिन्नता और अलग-अलग संदर्भों से सूचना को समझने की कोशिश के कारण होता है।

इस पूरी प्रक्रिया को अब हम सीखने से जोड़ने की कोशिश करेंगे, जब हम सीखते हैं तो किसी सूचना को इनकोड करते हैं। उसका भण्डारण करते हैं और रिकॉल के माध्यम से उस सूचना को फिर से सक्रिय स्मृति में लाकर डिकोड करने या समझने की कोशिश करते हैं।

एक सूचना का लोगों के लिए अलग-अलग अर्थ क्यों होता है?

यहाँ पर एक बात ग़ौर करने वाली है कि हर किसी इंसान की सूचना या सेंसरी इनपुट को स्टोर करने की गुणवत्ता अलग-अलग होती है। इसे आसान शब्दों में कह सकते हैं कि हम कोई किसी सूचना को अपने-अपने तरीके से इनकोड करता है।

यही कारण है कि हर किसी के लिए एक ही अवधारणा (कांसेप्ट की डिकोडिंग) की समझ अलग-अलग होती है क्योंकि हर कोई अलग-अलग पृष्ठभूमि से आ रहा होता है।

हर किसी का स्कीमा अलग-अलग है। स्कीमा का अर्थ जो हम जानते हैं उससे आशय है, यह भी एक गतिशील संप्रत्यय है जो हमारे अनुभवों, यात्रा, पढ़ने-लिखने, संवाद करने और सीखने के साथ सतत परिवर्तित होता रहता है।

यहाँ पर ग़ौर करने वाली बात है कि संज्ञान की प्रक्रिया में वैयक्ति विभिन्नता भी अपनी भूमिका निभा रही होती है। इसके लिए सबकी अलग-अलग सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व भौगौलिक पृष्ठभूमि का हवाला दिया जा सकता है। एक ही भौगोलिक व सामाजिक पृष्ठभूमि में रहने वाले दो लोगों के अनुभव एक जैसे नहीं होते।

कैसे सक्रिय स्मृति का हिस्सा बनती हैं सूचनाएं?

सूचनाओं के रिकॉल करने के संदर्भ में एक बात ग़ौर करने वाली है कि हम उन्हीं सूचनाओं को ज्यादा आसानी से रिकॉल कर पाते हैं जिनको हमने ज्यादा व्यवस्थित तरीके से भण्डारण (या स्टोर) किया होता है क्योंकि इसकी प्रॉसेसिंग तुलनात्मक रूप से ज्यादा तेज़ी से होती है।

अगर प्रॉसेसिंग धीमी होती है तो संज्ञानात्मक लोड या संज्ञानात्मक भार बढ़ जाता है। संज्ञानात्मक भार या कॉगनिटिव लोड का कांसेप्ट जॉन स्वेलर ने 1988 में दिया था, इसके अनुसार किसी एक समय में हम अपनी अल्पकालिक या सक्रिय स्मृति (Working Memory) में जितनी सूचनाओं को इकट्ठा कर सकते हैं, उसे ही कॉगनिटिव लोड की संज्ञा दी गई है। इससे ज्यादा सूचनाओं की स्थिति में सूचनाओं के प्रॉसेसिंग की प्रक्रिया सामान्य रूप से नहीं हो पाती है।

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इस जानकारी या समझ का इस्तेमाल शिक्षा के क्षेत्र में काम करते समय किया जाता है। ताकि बच्चों के साथ शिक्षण के समय हम सूचनाओं को ज्यादा व्यवस्थित ढंग से उचित संदर्भ और गति के साथ रखें तो बच्चों के लिए उसे व्यवस्थित तरीके से समझना, उसे अपनी दीर्घकालिक स्मृति का हिस्सा बनाना और फिर आवश्यकता पड़ने पर उसे फिर से सक्रिय स्मृति में दोबारा लाना आसान हो जाता है।

इस मॉडल को शिक्षा मनोविज्ञान के सूचना प्रॉसेसिंग मॉडल में ज्यादा व्यवस्थिति ढंग से समझाया गया है। आगे के लेखों में हम संज्ञानात्मक विकास के अन्य पहलुओं की विस्तार से चर्चा करेंगे। आप अपने सवाल और टिप्पणी इस लेख के आखिर में दर्ज़ कर सकते हैं ताकि यह पता चल सके कि यह लेख आपको कैसा लगा।

(आप एजुकेशन मिरर को फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो कर सकते हैं। अपने आलेख और सुझाव भेजने के लिए ई-मेल करें mystory@educationmirror.org पर और ह्वाट्सऐप पर जुड़ें 9076578600 )

 

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