ऐसे में सोचने से क्या होगा?
अगर हम शिक्षकों को योजनाओं के निर्माण में शामिल नहीं करेंगे तो क्या संभावित असर होंगे? अगर हम इस सवाल को केंद्र बिंदु मानकर विचार करें तो हम पाएंगे कि ऐसे में शिक्षक सोचते हैं कि अगर हमें किसी योजना को जैसे-तैसे लागू ही करना है तो फिर ज्यादा सोचकर क्या होगा?
ऐसे माहौल में शिक्षक किसी योजना के क्रियान्वयन पर रिफलेक्ट नहीं करते। अगर कोई संभावित समाधान आता है तो भी वे उसे यह सोचकर खारिज कर देते हैं कि जब इस विचार को कहीं अमल में नहीं आना तो फिर सोचना ही क्यों? ऐसे विपरीत माहौल से गुजरने वाले शिक्षक काम करने की अपनी स्वाभाविक प्रेरणा खो देते हैं। क्योंकि वे अपने काम की खुद की जिम्मेदारी नहीं लेते।
‘आंतरिक प्रेरणा’ का जरिया है काम की स्वायत्तता और निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी
किसी काम की जिम्मेदारी लेना, उसको अपना समझना, उसमें सुधार की प्रक्रिया में हिस्सा लेना एक इंसान को आंतरिक रूप से प्रेरित होकर काम करने और नये-नये विचारों को रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बनाने के लिए प्रोत्साहित करती है, यह बात शिक्षा के क्षेत्र में भी उतनी ही सच है। यानि काम करने की स्वायत्तता और योजनाओं के निर्माण में भागीदारी देकर शिक्षकों को आतंरिक रूप से प्रेरित होकर काम करने का माहौल बनाया जा सकता है।