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शिक्षा में बदलाव की चाहः एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों, इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है!

20151212_154908आमतौर पर विद्यालय की दिनचर्या शिक्षकों के मुताबिक़ एक ख़ास गति से आगे बढ़ती है। बहुत सारी चीज़ों के निर्धारण की जिम्मेदारी शिक्षक की होती है, इसलिए वे ही एक धुरी के रूप में नज़र आते हैं। हर किसी के काम करने का तरीका अलग-अलग होता है। इसलिए कोई नेतृत्व करने के लिए सामने आ जाता है और बहुत सारी जिम्मेदारियों को सहजता से स्वीकार कर लेता है। बाकी लोग नेपथ्य से नेतृत्व करने या फिर नेपथ्य से नेतृतव की टाँग खींचने में अपनी सारी ऊर्जा लगा देते हैं, यह शिक्षा व्यवस्था की एक सच्चाई है कि यहाँ पर बदलाव विरोधी मानसिकता एक स्थायी भाव की तरह सतत मौजूद होता है।

इस स्थायी भाव में बदलाव की हर कोशिश का शिक्षा तंत्र में भरपूर विरोध होता है। चाहें यह बदलाव भाषा के पढ़ाने के तरीके के लेकर हो, विद्यालय के समय में परिवर्तन को लेकर हो, या फिर विद्यालय के कैदखाने में बंद किताबों को बच्चों को नियमित रूप से बाँटने की बात हो, ले-देकर मुद्दा यही होता है कि अगर स्थायी भाव वाली दशकों से चली आ रही व्यवस्था में बदलाव होना ही है तो फिर इसे करेगा कौन? शायद इसीलिए विद्यालय स्तर पर अधिकारियों और संस्था प्रमुखों द्वारा प्रभार देने का चलन शुरू हुआ होगा।

प्रभार का ‘भार’, जो उठाता है वही जानता है

children-of-village-playing-in-communityउदाहरण के तौर पर अगर किसी राज्य के किसी नये अगर जिले में लिट्रेसी का कार्यक्रम शुरू होना है तो आमतौर पर शुरूआती बातचीत में प्रधानाध्यापक कहते हैं कि सर इसका प्रभार तो फलां शिक्षक को दे दीजिए। हमने अपनी तरफ से हर प्रशिक्षण के लिए उनको नियुक्त कर रखा है। वे हमारे विद्यालय के प्रशिक्षण व कार्यक्रम प्रभारी हैं। ऐसे संवाद में हमें कई बार कहना पड़ता था कि सर हम आपकी विनम्रता के आभारी हैं, मगर इस कार्यक्रम में सिर्फ़ प्रभार ही नहीं लेना है। बल्कि रोज़ाना काम करना है।

ऐसी परिस्थिति में काम करने वाले शिक्षक को आगे करने और अपने ख़ास मगर प्रतिभाशाली शिक्षक को बचा लेने वाली कहानियों का भी चश्मदीद गवाह बनने का अवसर बहुत सी स्कूल विज़िट में मिला है। ऐसे में सबसे ज्यादा नुकसान किसका होता है? इस सवाल का एक ही जवाब है बच्चों का। इस सवाल का जवाब जानने के बावजूद कि बच्चों का नुकसान हो रहा है, सिर्फ समस्याओं के शोर में संवाद को रोकने की हर संभव कोशिश होती है।

सिर्फ पुरस्कार पाने वाले तिकड़म, प्रयास से फर्क होते हैं

a-letter-to-my-teacherहाँ, अगर किसी पुरस्कार के लिए विद्यालयों का चुनाव होने वाला है तो ऐसे प्रधानाध्यापक काफी भागादौड़ी करते हैं और शिक्षकों को सारा दिन बैठाकर रजिस्टर दुरूस्त करने और विद्यालय आने वालों से फर्जी फीडबैक जुटाने की तरफ पूरा ध्यान देते हैं।

ताकि विद्यालय में घुसते ही अधिकारियों का दिल जीता जा सके। उनको बाहरी चकाचौंध से प्रभावित किया जा सके। क्योंकि शैक्षिक स्तर जानने के लिए तो बच्चों के साथ समय बिताना पड़ता है और कक्षा-कक्ष में शिक्षण की प्रक्रिया का आकस्मिक व सहज भाव से अवलोकन करना होता है।

इतना समय वास्तव में प्रशासनिक जिम्मेदारी निभाने वाले अधिकारियों के पास नहीं है क्योंकि वे विभागीय कामों में व्यस्त होते हैं। चाहते तो वे भी हैं कि चीज़ें बदलें, मगर व्यस्तता और प्राथमिकताओं के विरोधाभाषा में वे भी अपना संतुलन साधने का प्रयास करते हैं। अगर पुरस्कार वाली कहानी के अगर विस्तार में चलें तो उपरोक्त परिस्थिति वाले स्कूलों का शैक्षिक स्तर वास्तव में बाकी स्कूलों के बराबर नहीं होता है। पर बहुत से प्रधानाध्यापक सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और पुरस्कार के लिए अपने विद्यालय के शौचालय के दरवाज़े का ताला विज़िट करने के लिए आई टीम के लिए खोल देते हैं, जो सिर्फ उनकी जरूरत पर खुद उनके लिए ही खुलता है। ऐसी स्थिति के बाद भी उस विद्यालय को अनुशासन, स्वच्छता, मिलनसार होने और वफादारी होने के नाम पर विद्यालय को पुरस्कार मिल जाता है।

‘नकली पुरस्कारों’ से काम करने वाले हतोत्साहित होते हैं

education-system-in-indiaइसके विपरीत उस स्कूल के शिक्षकों को कठिन सवालों का सामना करना पड़ता है जो वास्तव में अच्छा काम कर रहे होते हैं, मगर तमाम तरह के प्रचार-प्रसार और निरंतर संपर्क में बने रहने के लिए बच्चों का समय खराब करने की बजाय उस समय को बच्चों के शिक्षण हेतु इस्तेमाल करते हैं।

इससे प्रोत्साहित होने वाले को सच पता रहता है और हतोत्साहित होने वाले को हैरानी होती है, या वे भी सहज भाव से मान लेते हैं कि पुरस्कार और जुगाड़ का चोली-दामन का साथ है, अच्छा है कि हम अपने काम में ही व्यस्त रहें। इसलिए वे टाइम ऑन टास्क यानि कक्षा-कक्ष में शिक्षण के वास्तविक समय को बच्चों की जरूरत के अनुसार ऊंचा रखते हैं और दावे के साथ अपने बच्चों को किसी भी टीम के सामने किताब पढ़ने और संवाद करने का अवसर देते हैं।

प्रधानाध्यापक की ‘लीडरशिप’ से यथास्थिति में बदलाव

education-mirror-imageअगर संस्था प्रमुख में नेतृत्व करने और काम का सही बँटवारा करने की कला हो तो संस्था की कहानी केस स्टडी लायक बन जाती है। संसाधनों का अभाव, अधिगम स्तर पर पड़ने वाले प्रभाव को नकारात्मक नहीं बना पाता। एक सजग संस्था प्रमुख अपने शिक्षकों को वह रचनात्मक तरीके से स्वायत्तता और व्यवस्था के बीच संतुलन साधते हुए आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है। उनसे निरंतर बच्चों के सीखने में होने वाली प्रगति के बारे में बात करता है।

ऐसे प्रधानाध्यापक स्टाफ बैठक के दौरान अभिभावकों के सवालों और व्यवस्था के बढ़ते दबाव की वास्तविकता से अवगत कराते हैं। कई बार सीधे-सीधे कहता है कि देखिए सर, अगर स्कूल में बच्चे हैं तो हम हैं। हम स्कूल में बच्चों के लिए हैं और बच्चे स्कूल में बहुत सी बुनियादी बातें सीखने और जीवन कौशलों का विकास करने के उद्देश्य से आते हैं। ताकि वे समाज के बेहतर नागरिक बन सकें। ऐसा नागरिक जो रचनात्मक योगदान देता हो, ऐसा नागरिक नहीं कि कल को हमारी और आपकी बदनामी हो कि अरे, यह लड़का तो फलां स्कूल से पढ़ा हुआ है।

‘सही लीडरशिप’ में निखरते हैं शिक्षक

उपरोक्त शीर्षक में ‘सही लीडरशिप’ का आशय ऐसे नेतृत्व से है जो लोगों को सबल बनाता है। मजबूत बनाता है। अपने स्कूल को एक टीम की तरह देखता है और शिक्षकों को अपनी क्षमता व रुचि के अनुसार विषय चुनने की आज़ादी के साथ-साथ काम करने की आज़ादी देता है। अगर कोई काम नया है, तो उसे सीखने में सहयोग का भाव रखता है। ऐसे गुणों से संपन्न प्रधानाध्यापक साथी शिक्षकों का सम्मान पाते हैं।

education mirror, primary education in indiaऐसे माहौल में शिक्षक अपनी भावी जिम्मेदारी को एक प्रधानाध्यापक में देख पाते हैं, अपने काम की गंभीरता और जिम्मेदारी को स्वीकार करना सीखते हैं। ऐसे कई प्रधानाध्यापकों से मिलना हुआ है जिन्होंने अपने शिक्षक वाले कार्यकाल के दौरान अपने प्रधानाध्यापकों से बहुत कुछ सीखा था। वे उनका जिक्र करते हुए कहते कि हमारे काम की सक्रियता और सटीकता में उस सार्थक नेतृत्व की बड़ी भूमिका है, जहाँ हमें जिम्मेदारी और सहयोग दोनों मिला।

ऐसे सजग संस्था प्रधान की लीडरशिप में यहाँ के रोज़ाना की प्लानिंग और ख़ास रणनीति के अनुसार पढ़ाने से डरने वाले शिक्षक भी 6 महीने या सालभर की तैयारी के बाद अपनी शिक्षण प्रक्रिया और बच्चों की जरूरत के बीच तालमेल बैठाना सीख लेते हैं। वे धीरे-धीरे ऐसा माहौल बनाने की जरूरत को भाँप लेते हैं, जो बच्चों को आपस में एक-दूसरे से सीखने का अवसर देने वाली हो। उनको पता होता है कि कमज़ोर बच्चों को आगे बढ़ने में मदद करने का भाव अगर कक्षा के सारे बच्चों में आ गया तो फिर कोई पीछे नहीं रहेगा। पीछे रहने वाले बच्चे भी आगे आने के लिए प्रयास करना शुरू कर देंगे।

एक ‘चिंतनशील शिक्षक’ बदलाव की प्रक्रिया से गुजरता है

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अपने काम की प्रक्रिया में ऐसे शिक्षक सच्चे खुले मन से अपनी कमज़ोरियों और सुधार के क्षेत्रों को पहचान पाते हैं। इस यात्रा पर चलने वाले शिक्षक की ख़ास बात होती है कि वे अपनी ताक़त को ‘बड़ी ताक़त’ में तब्दील कर लेते हैं। कमज़ोरियों की जगह अपने आप धीरे-धीरे कम होती जाती है। शिक्षकों में बदलाव की कहानी का केंद्र बिंदु काम करना, बच्चों से संवाद करना और उनके सीखने की समस्याओं को पहचानना व समाधान करना ही है।

अपने काम के माध्यम से वे खुद अपने शिक्षण के अनुभवों पर विचार करते हैं। जहाँ-जहाँ चीज़ों का मशीनीकरण हो रहा होता है, उसको स्व-प्रयासों से मानवीय बनाने की कोशिश करते हैं। बच्चों को सीखने की प्रक्रिया में आनंद आये और शिक्षक को पढ़ाने के बाद संतुष्टि का अहसास हो कि मैं जो पढ़ा रहा हूँ, वे बच्चे सीख रहे हैं। यह चीज़ जहाँ होने लगती है, शिक्षा व्यवस्था के स्थायी भाव को बदलाव की राह मिल जाती है।

बदलाव की चाह रखने वाले शिक्षकों का विरोध भी होता है

काम के प्रति प्रतिबद्धता और लगन के साथ काम करके विद्यालय में बदलाव लाने की कोशिशों की गति को भी रोकने की कोशिशें होती हैं। साथी शिक्षक ही कहते हैं कि अरे! सर आपको भी तो हम लोगों जितना ही वेतन मिलता है, क्यों इतनी मेहनत कर रहे हैं। आप तो पढ़ा रहे हैं, जो फलां संस्था से आ रहे हैं, केवल फीडबैक लिखकर, बच्चों का असेसमेंट करके और बात करके चले जाते हैं। अगर वे शिक्षक शिक्षामित्र या प्रबोधक (राजस्थान) हुए तो फिर पढ़ाने वाले शिक्षक को हतोत्साहित करने का कोई मौका ज्यादा वेतन पाने वाले शिक्षक क्यों चूकेंगे।

parenting-in-indiaविद्यालय में आने वाले ‘शिक्षक प्रशिक्षक’, या सुगमकर्ता के स्कूल से जाने के बाद वे संबंधित शिक्षक को घेरकर बैठ जाएंगे और कहेंगे कि अरे! आप क्यों परेशान होते हैं। कोई आपका क्या कर लेगा, क्यों परेशान होते हैं। एक ऐसी ही शिक्षक साथी ने कहा कि मुझे तो कम वेतन मिलता है, मैं इतनी मेहनत क्यों करूं?

मैंने कहा कि सर यह बात आपके साथी, आप और आपके कहने के बाद मैं जान रहा हूँ। मगर पहली-दूसरी कक्षा के बच्चे सच में नहीं जानते कि आपका वेतन कितना है? वे तो बस इतना जानते हैं कि आप हिंदी/गणित/अंग्रेजी/विज्ञान/ या सामाजिक विज्ञान पढ़ाते हैं। इसमें उनका क्या दोष है। ऐसे शिक्षक पढ़ाने का प्रयास करते हैं, मगर आलोचना की धुंध से सच्चाई की रौशनी में आने की राह सच में दर्द और तकलीफ से भरी हुई होती है, यह अब अच्छे से समझ में आता है। ऐसे में यह वाक्य कि शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते, ‘क्यों’ वाला शब्द जोड़े बिना पूरे नहीं होते।

‘क्या हम एक ऐसी समस्या का समाधान कर रहे हैं, जो कहीं नहीं है’

एक दिन एक शिक्षक के साथ मैं घर की तरफ वापस लौट रहा था, रास्ते में उन्होंने कहा, “देखिए सर, बहुत सारी योजनाओं को तो हम शिक्षक खुद कामयाब नहीं होने देते, अगर योजनाएं कामयाब हो गईं तो हमें रोज़ उसी तरीके से काम करना होगा। दरअसल शिक्षा व्यवस्था में कोई समस्या थी ही नहीं, सिवा काम करने के मन और जिम्मेदारी लेने वाले भाव के अभाव के। चीज़ें जैसी चल रही हैं, वैसी ही चलती रहें और अपनी सुविधा बनी रहे, इस भाव के कारण ही यही चीज़ पूरी व्यवस्था में फैल गई।”

उन्होंने आगे कहा, “बहुत से वरिष्ठ शिक्षकों ने नये शिक्षकों को सक्रियता और नयी ऊर्जा के साथ काम नहीं करने दिया। या फिर जिम्मेदारियां नहीं दीं। या फिर ग़ैर-शैक्षणिक कामों में लगाकर सारा उत्साह मार दिया। जब लोगों ने देखा कि शिक्षक के पास काम नहीं हैं और बच्चे सीख नहीं रहे हैं तो धीरे-धीरे शिक्षकों को ग़ैर-शैक्षणिक कामों में लगा दिया गया। बच्चों के सीखने के प्रति जवाबदेही लाने के लिए बनने वाले तमाम कार्यक्रमों के कारण शैक्षणिक प्रयोगों का एक सिलसिला शुरू हुआ जो औपचारिकताओं के कारण असफलता की देहरी पर चोटिल हो, समुद्र की लहरों जैसे वापस लौट गये। जो गये तो फिर किसी और रूप में लौटे, मगर किनारे की यथास्थिति ज्यों की त्यों बनी रही।”

‘उम्मीद अभी भी कायम हैं, इसलिए काम कर रहे हैं’

wp-image-1881994376उन्होंने कहा, “बीते कई सालों में जो बदला है सिर्फ भौतिक रूप में बदला है। इस बदलाव के साथ बहुत से बदलाव ऐसे भी हुए हैं, जो शिक्षकों को पसंद नहीं हैं। मगर इस स्थिति का आयात तो उन्हीं के अपने काम करने के तरीके और बनाई हुई व्यवस्था के कारण हुआ है। आज की तारीख में बहुत से विद्यालयों में भौतिक संसाधनों की उपलब्धता तो बढ़ गई। पहले के सरकारी स्कूलों में इतने संसाधन भी नहीं थे। उस समय लोगों की प्राथमिकता में बाऊंड्री वाल नहीं थी, मगर पढ़ाई अच्छी होती थी।”

उनकी बात का सार था कि बीते दशकों में बदलाव की वास्तविक भावना, जिद, कुछ हटकर करने की तमन्ना, युवावस्था का जोश और शिक्षक होने का जो गरिमामय अहसास था, वह कहीं खो गया। अगर कोई बदलाव संभव है तो उसी कुछ कर गुजरने के जज्बे और अहसास की बदौलत ही संभव है, जिसे फिर से ढूँढ लाने की जरूरत है। इस मोड़ पर अपनी बात समाप्त करते हुए यही कहने का मन हो रहा है कि एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों, इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

6 Comments on शिक्षा में बदलाव की चाहः एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों, इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है!

  1. Virjesh Singh // February 1, 2018 at 5:38 pm //

    Thank you so much. That’s my pleasure.

  2. very nice sir,,,,,waiting for next article

  3. Anonymous // February 1, 2018 at 4:58 pm //

    Mast article.

  4. Too Good Virjesh!

  5. Virjesh Singh // February 1, 2018 at 3:15 pm //

    Thank you so much for reading it so quickly. Pleased to have such committed readers and appreciate your response that give me energy to write such posts.

  6. Anonymous // February 1, 2018 at 3:13 pm //

    Amezing Article..it’s really made me think towards the major cause in education.

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