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जे सुशीलः ‘पढ़ना एक अच्छी आदत है. लेकिन आदत लगाना एक मुश्किल काम है’

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पढ़ने और लेखन के साथ-साथ जे सुशील की कला में भी रूचि है। एक सरकारी स्कूल में ऑर्ट प्रोजेक्ट के दौरान।

किताब पढ़ना एक अच्छी आदत है. लेकिन आदत लगाना एक मुश्किल काम है. मुझे चोरी चोरी किताब पढ़ने के चक्कर में पढ़ने की आदत लगी. मेरी मां को पढ़ना नहीं आता है. पिताजी हिंदी पढ़ लेते हैं लेकिन उनसे चिट्ठी वगैरह लिखने को कहा जाए तो वो चिढ़ जाते हैं. उनको मैंने एकाध चिट्ठी लिखते देखा होगा बचपन में वो भी चार लाइन.

बस होता ये था कि दोपहर में खास कर वो वेद प्रकाश शर्मा, मनोज, सरला रानू टाइप के उपन्यास पढ़ पढ़ के मां को सुनाया करते थे. गर्मी के दोपहरियों में और रातों में अक्सर हम सब लोग नीचे ज़मीन पर सोते थे और पापा वो उपन्यास पढ़ते रहते थे. मेरे दोनों भाई सो जाते थे मैं सुनता रहता था.

पढ़ने की आदत

स्कूल जब सुबह का होता तो दोपहर में पापा के कारखाने जाते ही मैं वो छुपा कर रखे गए उपन्यास निकाल लेता और पढ़ने लगता था. मेरी मां को दोपहर में सोने की बीमारी थी और एकाध बार मां ने धमकाया भी कि पापा को बताऊंगी कि तुम उनके उपन्यास पढ़ते हो. मैंने जवाब दिया कि नींद नहीं आ रही है और पढ़ ही तो रहा हूं.

पापा का उपन्यास न पढ़ा जाए इसलिए पापा नंदन, चंदामामा, बाल भारती लाने लगे लेकिन मैं ये नंदन वगैरह एक घंटे में शुरू से अंत तक पढ़ जाता था. घर में इतने न तो पैसे थे और न ही जानकारी कि बाल साहित्य लाया जाए. तो कुल मिलाकर मैंने मनोहर कहानियां, सत्य कथाएं और ये वेद प्रकाश शर्मा के लगभग सारे उपन्यास पढ़े हैं उस ज़माने के.

हां ये ज़रूर था कि पिताजी के सामने कभी नहीं पढ़ता था. वो कारखाने में हैं तभी ये काम करता था. ये सिलसिसा आठवीं नौंवीं तक चला होगा जिसके बाद मुझे पता नहीं कैसे लाइब्रेरी समझ में आने लगा और वहां से मैंने हिंदी की किताबें उठानी शुरू कीं. फिर आगे जो है सो है.

किताबें पढ़ने की असली शुरुआत

लेकिन किताबें असल में पढ़ना जेएनयू में ही शुरू हुआ. हिंदी की करीब डेढ़ दौ सौ कहानियों की किताबें बिना किसी भेदभाव के वहीं पढ़ी गईं और दो साल में तय किया गया कि अब बहुत हो गया हिंदी में पढ़ना. अब अंग्रेजी में पढ़ेंगे. और यहां से शुरू हुआ किताबें खरीदने का सिलसिला.

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एक सरकारी स्कूल में बच्चों को आर्ट वर्क में सहयोग करते हुए ‘मी’। जे की पढ़ने की आदत को मी कैसे प्रोत्साहित कर रही हैं उसकी कहानी आप आगे इस स्टोरी में पढ़ेंगे।

बहुत सोच समझ कर हिसाब किताब ये बना कि सैलरी साढ़े छह हज़ार रूपए है तो पांच सौ रूपए किताब में हर महीने लगाया जा सकता है. साल में बारह किताबें बुरी नहीं थीं. फिर दूसरे दफ्तर में आए जहां तनख्वाह ज्यादा थी तो पांच सौ को बढ़ाकर दो हज़ार और ज़रूरत पड़ने पर पांच हज़ार तक किया गया. मैंने सबसे मंहगी किताब खरीदी थी आर्ट से जुड़ी 4500 की वो मी के लिए.

ज़रूरी नहीं कि जितनी किताबें खरीदी मैंने वो सारी पढ़ी हों. नहीं पढ़ी हैं. कई किताबें बीस पेज के बाद कभी नहीं पढ़ीं. कुछ किताबों के चार पन्ने पढ़े होंगे. किसी का कोई एक चैप्टर पढ़ा. कोई किताब बार बार पढ़ चुका. कुछ किताबें कई बार खरीदीं लोगों को देने के लिए.

फिर किसी से मुलाकात हुई तो पाया कि उसका पुस्तक भंडार हमसे कई गुना बड़ा है. वो मुझे कुछ और दुकानों में ले गए जहां बेहतरीन किताबें थीं और सस्ती. लेकिन जब तक वहां का पूरा लाभ उठाता अमेरिका आ गए.

अमरीका में रहते हुए पढ़ना कैसे जारी है?

यहां अब सिस्टम थोड़ा अलग है. शुरुआती एक साल किताबें नहीं लीं. लाइब्रेरी से काम चला फिर ये हुआ कि कुछ किताबें खरीदनी ज़रूरी लगीं बार बार पढ़े जाने के लिए तो हिसाब लगाना पड़ा.

मी मुझे हर महीने जेबखर्च देती है बीस डॉलर. यहां तो बाहर चाय पीने का कोई सीन है नहीं तो मैं बीस डॉलर की बीयर खरीद लेता था या कभी पब में जाकर पी ली. पब में बीस डॉलर में चार गिलास बीयर मुश्किल से. दुकान से खरीदो तो बीस डॉलर में दस बीयर से तीस बीयर तक ब्रैंड के अनुसार.

तरकीब ये निकाली कि बीस में तीस वाली ले ली जाए और बीयर पर नियंत्रण कर लिया जाए. अब पिछले दो साल से हिसाब किताब ये है कि मैं साल भर में साठ सत्तर से मैक्सिमम सौ बीयर पीता हूं यानी कि तीन महीने के जेब खर्च में साल पूरा हो गया.

नौ महीने का जेब खर्च मैंने बचा लिया 180 डॉलर. किताबें मैं खरीदता हूं सेकंड हैंड जो कि अच्छी क्वालिटी की होती है. महीने में कभी तीन चार और कभी एक (कुछ किताबें नई ही लेनी होती है जो नई आती हैं वो बीस डॉलर से कम की होती नहीं एक किताब अमूमन. आर्ट की हो तो और मंहगी) किताब औसतन. सारी किताबें वो भी नहीं पढ़ पाते लेकिन खरीदना जारी रखता हूं. इसके पीछे कोई लॉजिक नहीं है मेरे पास. खरीदूंगा तो पढूंगा.

‘मैं पीडीएफ नहीं पढ़ पाता’

पढ़ने का रूटीन वही है. बीस पेज.

बाकी मैं पीडीएफ पढ़ नहीं पाता किताबें. खास कर उपन्यास तो बिल्कुल नहीं. मी ने किंडल खरीद कर गिफ्ट किया था दिल्ली में. तीन किताबें पढ़ी उस पर. एकदम याद नहीं है क्या कहानी थी. कारण वही था मुझे किंडल पर मजा नहीं आया. किताब छूने की चीज़ है.

इसलिए मुझे समझ में नहीं आता जब लोग पीडीएफ मंगवाते हैं पढ़ने के लिए तो. कोई रेयर किताब है. उपलब्ध नहीं है तो समझ सकता हूं. कुछ किताबें जो वाकई उपलब्ध नहीं वो पीडीएफ पढ़ लेता हूं. लेकिन मूल रूप से पीडीएफ पढ़ना पसंद नहीं है मुझे.

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एक स्कूल में पेंटिंग के बाद वहाँ से वापस लौटने की तैयारी ‘जे और मी’

हां आपके पास खरीदने के पैसे नहीं है. फ्री में किताब पढ़नी है तो दुनिया के कई क्लासिक उपन्यास प्रोजेक्ट गुटनबर्ग पर फ्री में उपलब्ध हैं. आप वहां से पढ़ सकते हैं. ज्यादातर के लेखक निपट चुके हैं. माल कॉपीराइट फ्री है. किताबें कालजयी. लेकिन नए लेखकों का पीडीएफ मांग कर पढ़ने का जो पूरा रायता है वो पढ़ना कम और नए लेखक से दोस्ती गांठने और फेसबुक पर रूआब झाड़ने, लेखक को टैग करने का अधिक मसला है. ऐसा मुझे लगता है.

(जे. सुशील एक स्वतंत्र शोधार्थी हैं। जेएनयू से पढ़ाई और फिर पत्रकारिता में एक लंबा अनुभव बीबीसी हिन्दी के साथ। वर्तमान में ऑर्टोलाग की मुहिम को आगे बढ़ा रहे हैं। आप ‘मी’ के साथ कला को लेकर कई सारी सीरीज़ कर चुके हैं। ऑर्टोलाग के यूट्यूब चैनल पर कला की इस यात्रा से रूबरू हो सकते हैं। किताबों के ऊपर आप लगातार लिखते रहते हैं। एक ख़ास बात कि आपने मी के साथ मिलकर कई सारे सरकारी स्कूलों में पेंटिंग्स बनाई हैं ताकि बच्चों को कला से रूबरू कराया जा सके।)

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