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कविता भाषा का कारखाना है: सुशील शुक्ल

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भोपाल में आयोजित एक भाषा कार्यशाला के दौरान सुशील शुक्ल ने अपने अनुभव शेयर करते हुए कविताओं के सत्र में कहा कि कविता की जैसी तासीर (nature) है, उसको समझने के लिए मैंने खुद को स्वतंत्र छोड़ा।
कविताओं पर बात करने के लिए मैं अपने प्रिय कवियों की कविताएं पढ़ता हूँ और कविताओं के बारे में लिखे गये लेख पढ़ता हूँ ताकि कविता के ऊपर होने वाली बातचीत को सार्थक ढंग से किया जा सके।

मैं कविता को कैसे समझता हूं

मैं कविता को कैसे समझता हूँ? इस सवाल के साथ सुशील शुक्ल ने अपनी बात को विस्तार देते हुए कहा कि इस विषय पर आपसे बात करना वास्तव में खुद से मुखातिब होना है। कविता को किसी फ्रेम में समझने की कोशिश करना, एक स्कूली तरीका है। जहाँ हम ऊपरी संरचना पर ज्यादा बात करते हैं।

कविता में हम पूरे व्याकरण को उलट-पुलट देते हैं। अगर हम ग़ौर से देखें तो पाएंगे कि पर्यायवाची शब्द जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं। हर शब्द के बिल्कुल अलग-अलग मायने होते हैं। विलोम शब्द जैसी मूर्खतापूर्ण चीज़ तो कोई दूसरी है ही नहीं। दिन का उल्टा रात कैसे हो सकती है? कविता की जो संरचना है, इसमें उलझने के कारण स्कूली शिक्षा में आप चीज़ों की गहराई में नहीं उतर पाते हैं। उदाहरण के तौर पर किसी पाठ्यपुस्तक में एक कहानी है। एक व्यक्ति कहानी पढ़ रहा है। कहानी को पढ़ते हुए सवाल कौन से उठेंगे, यह कोई और व्यक्ति बता रहा है।

अगर उस कविता या कहानी में वाकई कुछ ऐसा है तो वह अपने पाठक को उस सवाल तक खुद पहुंचाने की सामर्थ्य रखती है। अगर ऐसा नहीं है तो वह कविता या कहानी कमज़ोर है। अगर हम कविता की बात करें तो कवि को भाव तो पता होता है, लेकिन कविता के आखिरी पंक्ति के लिखे जाने तक कवि को खुद पता नहीं होता कि कविता क्या होगी। अलग-अलग तरह के मन होते हैं, व्यक्तित्व होता है, मनःस्थिति होती है, परिस्थिति होती है इन सबका असर कविता को समझने पर पड़ता है। कविता का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता।

वास्तव में भाव के स्तर पर ही कविता बन जाती है। सबकुछ सोचकर, समझकर सुलझाकर कोई कविता नहीं लिखी जाती। कविता में व्यंजना की शक्ति होती है। आमतौर पर ऐसे सवाल पूछे जाते हैं कि कविता से क्या हो जाएगा? साहित्य से क्या हो जाएगा? तुम नदी के किनारे से नदी को देख रहे हो, पक्षियों को निहार रहे हो इससे क्या हो जाएगा? ऐसे सवालों का कोई सीधा-सीधा जवाब विज्ञान या सामाजिक विज्ञान की तरह नहीं होता है। अभिनव गुप्त साहित्य को एक ऐसा छड़ या ऐसा पल मानते हैं , जिसमें हम मुग्ध हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं। जब व्यक्ति अच्छे मूड में होता है तो वह उदार होता है। वह सामने वाले को बतौर इंसान तवज्जो देता है, उसको सुनता है।

कविता भाषा का कारखाना है

हमारे पास इतने कम शब्द हैं। यह साहित्य ही है जो भाषा में नये-नये अर्थ सृजित करता है। एक ही शब्द का अलग-अलग अर्थों में इस्तेमाल होता है। वास्तव में शब्दों का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता, उका अर्थ काफी हद तक संदर्भ पर निर्भर करता है। भाषा का ज्यादा इस्तेमाल करना महत्व की बात है। नरेश सक्सेना जी अपनी एक कविता में लिखते हैं, “पुल पार करने से पुल पार होता है, पुल पार करने से नदी पार नहीं होती’। कविता या कहानी में हमारे आदतन वाले जीवन पर सवाल खड़े होते हैं। अक्टूबर फिल्म ने कई लोगों को हरशृंगार फूल को देखने का नया नज़रिया दिया। साहित्य की यही ताकत है कि वह ठीक बगल में मौजूद पेड़ को आपकी नज़र में, आपके जीवन में लेकर चला आता है। उदाहरण के तौर पर बबूल कविता में यह बात ख़ासतौर पर रेखांकित होती है। जो आदतन आपका जीवन है, आपको जिसके बारे में पता नहीं है, साहित्य उससे हमें जोड़ता है और हमारे जीवन के दायरे को बढ़ाता है। समय और काल से दूर कोई साहित्य नहीं हो सकता है।

लड़कियां, महिलाएं हीरो हों, ऐसी कविताएं कम हैं। दलितों व मुस्लिमों का कविताओं व साहित्य में स्पेश बहुत कम है। ईदगाह के टेक्स्ट में से कई सारी चीज़ों को हटा दिया गया, जब उसे पाठ्यपुस्तक में शामिल किया गया। जैसे एक पंक्ति है, ‘अमीना ने पैसे ईमान की तरह बचाकर रखे हैं।“ हमारी उस दुनिया से कोई पहचान ही नहीं है, जो हमारे आसपास है। कवि कहाँ खड़े होकर देख रहा है, यह बात कविता को पढ़ते हुए समझ में आती है। किसी बात को कैसे कहें, साहित्य हर बार एक नई चीज़ पैदा करता है। हमारा संवाद सबके लिए अलग-अलग होता है। कविता या व्यंग्य में किसी भी बात को बड़े आराम से कह देने की गुंजाइश पैदा होती है। जो बात है, वह कैसे कही जा रही है उससे मिलकर ही बनती है। इन दोनों को अलग-अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। किसी एक ही बात को कहने के बहुत से तरीके हो सकते हैं।

अगला सवाल था कि आप कैसे पता करते हैं कि कोई चीज़ कविता है, कहानी है या गद्य है। लोगों ने जवाब दिया, “कविता में तुकबंदी, लय होती है। इसमें कोई बात सीधे-सीधे नहीं कही जाती। 1940 के बाद से तुकान्त या छंद वाली कविताएं नहीं लिखी जा रही हैं या कम लिखी जा रही है। संस्कृत में कभी भी तुकबंदी पर जोर नहीं रहा। गद्य में भी कविता वाले सारे तत्व हो सकते हैं, यह बात एक प्रतिभागी ने कही।“ हमारे मन में जो भी आइडिया आता है, वह अपने फॉर्म के साथ आता है। अगर आप उसको किसी और फॉर्म में तब्दील करेंगे तो वह ख़ासियत नहीं रह जायेगी। अगर हम किसी कविता को गद्य में ट्रांसफर करें, अगर उसे गद्य नहीं कहा जा सकता है तो वह कविता होगी। कविता अर्थों का विस्तार करती है। इस बात को उन्होंने बच्चे के द्वारा बनाये गये हाथी के चित्र वाले रूपक से समझाया कि कुछ मूलभूत बातें हाथी की होती हैं, बाकी दूसरी चीज़ें होती हैं।

अगर हिन्दी के फिल्मी गीतों की बात करें तो एक गीत की पंक्ति हैं, वादी में गूंजती हुई…..ख़ामोशियां सुने। कोई भी कहानी या रिपोर्ट निष्कर्षात्मक नहीं होती है। उसमें सवाल भी होते हैं। भविष्य में बात करने के लिए विचारणीय बिंदु भी होते हैं। किसी कविता या कहानी में बच्चे के लिए स्पेश बचा होना चाहिए, ताकि पढ़ने वाला पाठक भी उसमें शामिल हो सके।

साहित्य समाज का दर्पण मात्र नहीं

आमतौर पर एक पंक्ति का साहित्य के संदर्भ में इस्तेमाल होता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य जो समाज में है, वह केवल उसको प्रतिबिंबित ही नहीं करता, बल्कि उसे कैसा होना चाहिए यह भी बताता है। किसी इक्सट्रीम से लौटा लाने की गुंजाइश साहित्य में होती है। कोई भी इंसान पूरी तरह अच्छा या बुरा नहीं होता है। ग्रीक साहित्य में कविता का अर्थ है सृजन करना, बनाना, रचना करना, निर्मित करना। बच्चों न बड़ों के साहित्य में कोई अंतर नहीं होता है।

एक सवालः तुकबंदी महत्वपूर्ण है या फिर जो बात हम कहना चाहते हैं वह महत्वपूर्ण है। लय की समझ आपको अच्छी कविताएं लिखने में मदद करती है। अर्थों में भी एक लय होती है। तो कविता का अर्थ है

  • जीवन को दर्ज ही नहीं करना, बल्कि उसे बनाना भी
  • यथार्थ से मिले अनुभवों की अभिव्यक्ति
  • धुआँ भी सकारात्मक अर्थ में इस्तेमाल हो सकता है, यही विशेषता है साहित्य की।

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