जॉन होल्ट की डायरीः ‘ज्ञान, सीखना और समझना एकरेखीय नहीं है’
साल 1960 में 20 जून को लिखी जॉन होल्ट की डायरी के यह अंश आज भी सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। समझ पर जमी धूल को झाड़ने का एक बहाना देते हैं। विचारों की चमक से हमें चौंकाते हैं और इस पंक्तियों को पढ़कर हम हैरान होते हैं कि आज के 60 साल पहले कोई इंसान उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा था, जिनसे हम दो-चार हो रहे हैं। इस किताब को पढ़ते हुए लगा कि इसके बारे में एजुकेशन मिरर के पाठकों को अवगत कराया जाये। इसी उद्देश्य से इस डायरी का एक अंश हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं।
ज्ञान, सीखना और समझना एकरेखीय चरण नहीं हैं। न ही वे एक कतार में एक के ऊपर एक रखे हुए जानकारी के टुकड़े हैं। ज्ञान का कोई भी क्षेत्र चाहे वह भाषा हो, विज्ञान हो. संगीत हो या कोई भी दूसरा विषय क्यों न हो, एक क्षेत्र होता है। उस क्षेत्र को जानने का अर्थ उस क्षेत्र की हरेक वस्तु को जानना भर नहीं होता, बल्कि यह जानना भी होता है कि उसका परस्पर संबंध क्या है, किससे उसकी तुलना की जा सकती है, वे कहाँ एक-दूसरे से जुड़ते हैं। यह अंतर वैसा ही है जैसा अपने घर के बारे में यह कहना कि उसमें कितनी मेजें, कितनी कुर्सियां या बत्तियां हैं और आँख मूंदे-मूंदे ही यह जान लेना कि कौन सी चीज़ कहाँ आनी चाहिए। यह वही अंतर है जो एक शहर की सड़कों के नाम जानने में और अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए हमें कौन सा रास्ता पकड़ना चाहिए, यह जानने में होता है।
कैसे मानें कि हमने कुछ सीखा है?
हम अपनी दुनिया और उसके ज्ञान के विषय में ऐसे क्यों बोलते हैं या लिखते हैं मानो वह एक रेखीय हो? इसलिए क्योंकि भाषा का स्वभाव ही ऐसा है। हमारे शब्द एक कतार में निकलते हैं, एक के बाद एक बोलने या लिखने का कोई दूसरा उपाय है ही कहाँ। सो जगत के बारे में कुछ कहने के मक़सद से हम इस अविभाजित व संपूर्ण जगत को छोटे-छोटे टुकड़े में काट देते हैं। बातों की लड़ियां ही बना लेते हैं, मानो वे किसी माला के मनके हों।
पर इससे हमें धोखा नहीं खाना चाहिए, संसार माला की लड़ियों जैसा नहीं होता। हमारा ज्ञान तबतक वास्तविक, संपूर्ण, बिल्कुल सही और उपयोगी नहीं हो सकता है, जबतक हम इन शब्दों को लड़ियों को अपने दिमाग़ में जगत की छवि में परिवर्तित नहीं करें। जब हमारे पास एक ऐसा प्रारूप हो और जब यह प्रारूप यथार्थ से बिल्कुल मिलता-जुलता हो, केवल तभी हमारे बारे में कहा जा सकता है कि हमने कुछ सीखा है।
‘अर्थ निर्माण’ को कैसे मिले प्रोत्साहन?
स्कूलों में जो होता है वह यह है कि बच्चे शब्दों की इन लड़ियों को बिना पचाए ही अपने दिमाग़ में सहेजते जाते हैं ताकि शिक्षक जब भी मांगें, वे उसे उगल सकें। पर ऐसे में न तो उनके शब्द बदल ही पाते हैं, न ही किसी दूसरी वस्तु के साथ जुड़ते हैं। न ही उनके साथ शब्दों का कोई संबंध बन पाता है। वे उतने ही अर्थहीन होते हैं, जितने किसी तोते के बोल, खुद तोते के लिए। हम स्कूलों को ऐसे स्थानों में कैसे बदलें, जहाँ बच्चे केवल निगले नहीं बल्कि कुछ वास्तविक ज्ञान का सृजन कर सकें।
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