बच्चों के विकास में शिक्षक और अभिभावक की भूमिका क्या है?
बच्चों के विकास में अभिभावक की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। इस भूमिका के निर्वाह में स्कूलों के साथ उनका अच्छा तालमेल और समन्वय वाला रिश्ता होना जरूरी है। ऐसा करने के लिए ऐसे फोरम की जरूरत है जहाँ शिक्षक, अभिभावक और बच्चे एक साथ मौजूद हों। विद्यालय एक ऐसी जगह है जहाँ हर समुदाय से बच्चे आते हैं और औपचारिक शिक्षा ग्रहण करते हैं, जिससे वो अपने समुदाय की संस्कृति और काम को सीखते हुए जोड़ते हैं। इस यात्रा में बच्चे अपनी विभिन्न क्षेत्रों की दक्षता में सतत सुधार करते हुए सीखते हैं।
अभिभावकों की भूमिका है महत्वपूर्ण
अगर आप भी किसी बच्चे के अभिभावक हैं तो आपको नियमित अंतराल पर स्कूल जाना चाहिए। ताकि बच्चे के बारे में आपको शिक्षक से वास्तविक फीडबैक मिल सकें। बच्चों को भी एक संदेश पहुंचे कि मम्मी-पापा उनकी परवाह करते हैं। इसके लिए स्कूल में आयोजित होने वाली विद्यालय प्रबंधन समिति (एसएमसी) या अभिभाव-शिक्षक बैठक में अपनी सक्रिय भागीदारी जरूर सुनिश्चित करें।
इससे आपको शिक्षकों के नज़रिये से बच्चे की सफलताओं, प्रगति के साथ-साथ चुनौतियों यानि सहयोग के क्षेत्रों की सटीक पहचान हो सकेगी, जिस पर आप काम कर सकते हैं। शिक्षकों की शिकायत होती है कि बहुत से बच्चों के अभिभावक स्कूल में होने वाली बैठकों में हिस्सा नहीं लेते। ऐसे पैरेंट्स को भी प्रेरित करने में अपनी भूमिका निभा सकते हैं। ताकि ऐसी बैठकों को ज्यादा प्रभावशाली, उद्देश्यपूर्ण और उपयोगी बनाया जा सके।
क्रियात्मक शोध के नतीजे क्या कहते हैं?

फाइल फोटोः एक स्कूल की एसएमसी के सभी सदस्य।
संतोष कहते हैं कि लगभग एक साल पूर्व मैंने एक छोटा सा क्रियात्मक शोध किया था, जिसमे तीन तरह के स्कूल लिए गये थे, एक स्कूल जो किसी शहर से लगभग पचास किलोमीटर दूर एक गाँव में था । दूसरा स्कूल उसी शहर से कुछ दस किलोमीटर के भीतर था और तीसरा स्कूल जो उसी शहर में था। इस शोध में यह देखने की कोशिश की गई थी कि क्या अभिभावकों के स्कूल में न जाने से बच्चों के उत्साह में कमी आती है?
एसएमसी और अभिभावक-शिक्षक बैठक को रोचक बनाएं
जो स्कूल दूर गाँव में था, वहां से कभी-कभार एक-दो अभिभावक स्कूल पर आते जाते थे। इसका कारण था कि अभिभावक विद्यालय को एक फैक्ट्री के रूप में देखते थे। यानि उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेज दिया मतलब उनका काम खतम हो गया और वे अपने काम पर चले गए। इसका परिणाम था कि उस स्कूल का नामांकन कम था और बच्चों में उत्साह की कमी था।
दूसरा स्कूल जो दस किलोमीटर के भीतर था और गाँव में ही था, उनसे बच्चों की उपस्थिति, उनके पहनावे कहीं ज्यादा बेहतर थे । यहां अभिभावक सप्ताह में एक-दो बार बारी-बारी से स्कूल जरूर आते थे। जबकि तीसरे स्कूल में अभिभावक बच्चों को स्कूल छोड़ने के लिए आते थे और सभी शिक्षकों से निरंतर संवाद में बने रहते थे। इसका शिक्षकों और बच्चों के ऊपर सकारात्मक असर पड़ा।
विद्यालय को समुदाय से जोड़ने की अहम कड़ी हैं शिक्षक
अभिभावकों को विद्यालय से जोड़ने में शिक्षकों ने अहम भूमिका निभाई। वे बच्चों की प्रगति के बारे में अभिभावकों को बताते और उनके सहयोग के क्षेत्रों को भी रेखांकित करते थे। मसलन घर पर बच्चों को ख़ुद से बैठकर पढ़ने का समय देने और पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने जैसे बुनियादी मुद्दों पर बात करते थे। अभिभावकों की बैठक में रोचक प्रयासों द्वारा उनकी भागीदारी को सतत बनाए रखने जैसे प्रयास किये जा सकते हैं।
अगर विद्यालय में अभिभावकों के आने पर शिक्षक साथी उनके साथ अगर सिर्फ शिकायतें साझा करें, तो शायद वे दोबारा स्कूल आने से कतराएंगे। यही बात शिक्षकों के संदर्भ में भी लागू होती है जिनके बच्चे अन्य विद्यालयों में पढ़ते हैं। वे भी सकारात्मक व्यवहार की उम्मीद करते हैं। इसके साथ ही व्यावहारिक समस्याओं को व्यावहारिक तरीके से हल करना जरूरी होता है। ऐसे में समुदाय का सहयोग मिलना बहुत सारी समस्याओं के समाधान में मदद भी करता है।
(लेखक परिचयः इस पोस्ट के लेखक संतोष वर्मा ने अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलुरु से एमए एजुकेशन की पढ़ाई की है। वर्तमान में दिल्ली के सरकारी स्कूलों के साथ काम कर रहे हैं। वे पिछले पाँच वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। गांधी फेलोशिप के दौरान राजस्थान के चुरू ज़िले में प्रधानाध्यापकों के नेतृत्व कौशल विकास के जरिए विद्यालयों के सर्वांगीण विकास पर काम का अनुभव हासिल किया है।)
आपने अभिभावक शिक्षक की भूमिका का संक्षिप्त किन्तु सराहनीय प्रयास किया है। धन्यवाद।
Thanks for this
सराहनीय और उपयोगी लेख,ह्रदय से धन्यवाद,लेखक और प्रकाशक टिम को….