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भाषा शिक्षण का होल लैंग्वेज अप्रोच…


भाषा का “समग्रतावादी दृष्टिकोण” भाषा विमर्श के गलियारों में “होल लैंग्वेज अप्रोच” के नाम से जाना जाता है। जो भाषा को संप्रेषण का माध्यम मानने और शब्द-कोश तथा वाक्यगत नियमों के बंधन के अतिरिक्त अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देने की गुजारिश करता है। कोई भी भाषा अपने समाज की संरचना, साहित्य, संस्कृति, मनोविज्ञान एवं सौंदर्य की प्रचलित मान्यताओं से काफी गहराई से जुड़ी होती है। ताकि हम भाषा के बारे में सोचते समय तमाम तरह के चौखटों से परे एक समग्र दृष्टिकोण अपना सकें।
एनसीएफ 2005 के आधार पत्र के अनुसार, “शिक्षा में भाषा की भूमिका को ठीक ढंग से सराहने के लिए हमें समग्रतावादी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। हमें इसके संरचनागत, साहित्यिक, सांस्कृतिक , मनोवैज्ञानिक एवं सौंदर्यशास्त्रीय पक्षों को महत्व देते हुए, इसे एक बहुआयामी स्थिति में रखकर इसकी पड़ताल करनी होगी।”
सामान्यतः भाषा को शब्द-कोश व कुछ निश्चित वाक्यगत नियमों के मिश्रण के रूप में देखा जाता है, जहां पर यह ध्वनियों ,शब्दों व वाक्य के स्तर पर खास ढंग से नियंत्रित होती है। यह सच है। इससे इनकार नहीं जा सकता। लेकिन यह तस्वीर का केवल एक पहलू है। इसके साथ-साथ भाषा अपने स्थानीय साहित्य से समृद्ध और संपन्न होती है। साहित्य का पठन-पाठन, वाचन और श्रवण भी भाषा के संस्कारों से परिचित कराता है। लोककथाओं का दादा-दादी से कहानियों के रूप में सुनना। बचपन में कविता, कहानी, लघु उपन्यास, यहां तक की कामिक्स, चंपक, नंदन, बालहंस, चंदामामा पढ़ना भी साहित्य से रूबरू होना है। साहित्य से संवाद भी भाषा के साथ हमारे रिश्तों को प्रभावित करता है।
स्थानीय और संस्कृति का प्रभाव भी भाषा पर पड़ता है। संस्कृति में  खान-पान, रहन-सहन, लोक कलाएं, लोक कथाएं, लोक कहानियां, लोक नृत्य और लोक मान्यताओं का विस्तृत दायरा शामिल होता है। भाषा के माध्यम से जीवन को समझने और प्रस्तुत करने के सिलसिले में संस्कृति का पहलू स्वतः शामिल हो जाता है। अगर आदिवासी अंचल में रहने वाले किसी बच्चे से मेट्रो सिटी के अनुभवों के बारे में संवाद करें तो उन्हें समझने में परेशानी हो सकती है। लेकिन अगर स्थानीय मेलों, नृत्य, संगीत और जीवन के बारे में बात करें तो वे शीघ्रता से हमारी बातों का जवाब दे रहे होंगे। अगर यह बातचीत स्थानीय भाषा में हो रही होगी तो संवाद की सहजता और बढ़ जाएगी।
इसी तरीके से भाषा में मनोवैज्ञानिक पहलुओं का भी समावेश होता है। जिससे हम किसी समाज के मनोजगत को समझ पाते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी जान पाते हैं कि कैसे किसी संस्कृति में विशेष मानसिकता और सोच का निर्माण होता है। जो भाषा के माध्यम से बातचीत, जीवन व्यवहार और साहित्य में अभिव्यक्ति पाता है। साहित्य जीवन के सौंदर्यपरक पहलू को समृद्ध करता है। इसके साथ-साथ भाषा के प्रयोग के प्रति हमें संवेदनशील भी बनाता है।
इस तरह हम पाते हैं कि भाषा का विस्तार लोक, समाज, संस्कृति, मनोविज्ञान ,सौंदर्य ,साहित्य के अतिरिक्त सत्ता और सामाजिक संरचना से जुड़ा होता है। भाषा शिक्षण के दौरान उपरोक्त सारे पहलुओं को ध्यान में रखकर भाषा शिक्षण की प्रक्रिया को रोचक, आनंदवर्धक और व्यापक बनाया जा सकता है।
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