उनकी एक किताब का प्रकाशन ग्रंथ शिल्पी ने किया है। इसका शीर्षक है ‘आलोचनात्मक चेतना के लिए शिक्षा’। इसका राम किशन गुप्ता ने काफी अच्छा अनुवाद किया है। इसका किताब का पहला हिस्सा ‘स्वतंत्रता के व्यवहार के रूप में शिक्षा’ है। इसमें पहला टॉपिक ‘संक्रमणशील समाज’ है। प्रस्तुत है इसका एक अंश।
मनुष्य होने का मतलब
“मानव होने का मतलब अन्यों और दुनिया के साथ रिश्ता रखना है। इससे व्यक्ति यह अनुभव करता है कि दुनिया व्यक्ति से अलग, समझे जाने योग्य वस्तुपरक वास्तविकता है। वास्तविकता के भीतर डूबे जानवर इससे रिश्ते नहीं रख सकते; वे केवल संपर्क रखने वाले प्राणी हैं। लेकिन मनुष्य की दुनिया से विलगता और खुलापन उसे रिश्ते रखने वाले प्राणी के रूप में अलगाती है।
दुनिया के साथ मानव के रिश्ते बहुविध प्रकार के होते हैं। चाहे पर्यावरण की बहुत भिन्न चुनौतियों का मुकाबला करने की बात हो या एक जैसी चुनौती की बात, मनुष्यों का केवल एक ही प्रतिक्रिया पैटर्न नहीं होता। प्रत्युत्तर के लिए वे स्वयं को संगठित करते हैं, सर्वोत्तम प्रत्युत्तर को चुनते हैं, अपनी जांच करते हैं, क्रिया करते हैं और परिवर्तित होते हैं। वे यह सब सचेत रूप में करते हैं, जैसे कोई व्यक्ति समस्या से निपटने के लिए उपकरण का प्रयोग करता है।
दुनिया से रिश्ते
मनुष्य आलोचनात्मक तरीके से अपनी दुनिया से रिश्ते बनाते हैं। ये चिंतन के जरिए अपनी वस्तुपरक वास्तविकता को खोजते हैं। वे चिंतन के जरिए अपनी वस्तुपरक वास्तविकता को समझते हैं- न कि क्रिया द्वारा जैसा कि जानवर करते हैं। और आलोचनात्मक समझ की क्रिया में मनुष्य अपनी लौकिकता को खोजते हैं। मानव संस्कृति के इतिहास में समय के आयाम की खोज उसकी बुनियादी खोजों में से है। अनभिज्ञ संस्कृतियों में जाहिर तौर पर अनंत समय के ‘भार’ लोगों को अपनी लौकिकता की चेतना तक पहुंचने और इस प्रकार अपने ऐतिहासिक स्वरूप के बोध से रोका।
जब मनुष्य काल से उबरते हैं, लौकिकता खोजते हैं, और स्वयं को आज से मुक्त करते हैं तो दुनिया के साथ उनके संबंध परिणाम से युक्त हो जाते हैं। दुनिया के भीतर और दुनिया के साथ मानवों की सामान्य भूमिक निष्चेट नहीं होती। चूंकि वे प्राकृतिक (जीवीय) क्षेत्र तक सीमित नहीं हैं बल्कि सृजनात्मक आयाम में भी हिस्सा ले सकते हैं, इसलिए वास्तविकता को बदलने के लिए मनुष्य उसमें हिस्सा ले सकते हैं। अर्जित ज्ञान को उत्तराधिकार में प्राप्त करके, सृजन और पुर्नसृजन करके अपनी परिस्थिति से स्वयं को समेकित करके, उसकी चुनौतियों का प्रत्युत्तर देकर स्वयं को वस्तुपरक बनाकर, विवेकपूर्ण और अंतर्ज्ञाता होकर मनुष्य ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जो पूरी तरह से उनका है – वह क्षेत्र है इतिहास और संस्कृति का।