इसमें संज्ञानात्मक विकास जैसे कारकों को शामिल किया जाता है। उदाहरण के तौर पर स्कूल जाने वाले छात्र जैसे-जैसे बड़े होते हैं, सामाजिक, भावनात्मक और संज्ञानात्मक रूप से परिपक्व होते हैं उनके सीखने के तौर-तरीकों में क्या अंतर आता है।
ब्रेन बेस्ड लर्निंग (बीबीएल) में इस पहलू पर भी ध्यान दिया जाता है कि अधिगम में संवेगों, तनाव और खतरों की क्या भूमिका होती है। सबसे पहली बात हमारा मस्तिष्क एक समानांतर प्रासेसर की तरह से काम करता है।
एक समय में केवल एक निर्देश
बीबीएल को लागू करने के लिए वैज्ञानिक शोध पर आधारित रणनीतियों का इस्तेमाल किया जाता है। यह दो तरह की होती हैं मैक्रो और माइक्रो। क्लासरूम में बच्चों को निर्देश देते समय एक समय में हमें केवल एक निर्देश देना चाहिए क्योंकि मस्तिष्क को निर्देशों को एक प्रक्रिया से गुजारने के लिए थोड़ा समय चाहिए। सूचना को एक प्रक्रिया से गुजारने के बाद वह स्थान, काम और काम की गुणवत्ता का निर्धारण करता है। इसलिए एक समय में एक निर्देश देना क्लासरूम में काम करने की दृष्टि से काफी अच्छी रणनीति है।
ब्रेन बेस्ड लर्निंग या बीबीएल की रणनीतियों में शारीरिक सक्रियता के ऊपर विशेष ध्यान दिया जाता है। क्योंकि सीखने की दृष्टि से शारीरिक सक्रियता बेहद जरूरी है। रवींद्रनाथ टैगोर के शिक्षा दर्शन में बच्चों के खेलने और भागदौड़ी करते हुए सीखने को विशेष महत्व दिया गया है। शोध के मुताबिक शारिक सक्रियता से नये न्युरॉन बनते हैं, जिनका याददाश्त, मूड और सीखने से बड़ा गहरा रिश्ता है। इस प्रक्रिया को रोज़मर्रा के व्यवहार से एक दिशा दी जा सकती है। यानि स्कूलों में पढ़ाई के साथ-साथ खेल वाली गतिविधियों को भी विशेष महत्व देना चाहिए।
खेलने का मिले भरपूर मौका
इस तरह की गतिविधियों के दौरान निकलने वाले रसायन चिंतन, ध्यान केंद्रित करने, सीखने और याददाश्त अच्छी रखने में मदद करते हैं। स्कूल खुलने के दौरान पहले एक-दो सप्ताह में छात्रों का परिचय तमाम तरह की नई-नई गतिविधियों से कराना चाहिए। फिर उनको पसंद की गतिविधियां करने का विकल्प देना चाहिए। स्वैच्छिक रूप से होने वाली गतिविधियां दबाव से होने वाली गतिविधियों की तुलना में ज्यादा फायदेमंद होती हैं। इस पहलू का भी ध्यान हमें रखना चाहिए।
आने वाली पोस्ट में ‘ब्रेन बेस्ड लर्निंग’ की अन्य रणनीतियों और पहलुओं की बात करेंगे।