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नजरियाः यूपी बोर्ड के 10 लाख छात्र-छात्राओं का परीक्षा छोड़ देना, पूरे ‘सिस्टम’ की विफलता है!


युवा पत्रकार रणजीत सिंह लिखते हैं, “पता चला है कि इस साल उत्तर प्रदेश में 10 लाख छात्रों ने परीक्षा से सिर्फ इसलिए परहेज कर लिया क्योंकि इस बार परीक्षाओं में नक़ल की गुंजाइश नहीं दिख रही थी।” 

वे कहते हैं, “शर्मनाक है ये आंकड़ा न सिर्फ प्रदेश के उन 10 लाख छात्रों के लिए बल्कि उन छात्रों के अभिभावकों और शिक्षकों के लिए भी जो उन्हें न तो बिना नकल के पास होने की पढ़ाई करवा पाए और न ही उनमें ईमानदारी से परीक्षा देकर फेल होने का आत्मसम्मान/आत्मविश्वास जगा पाए।”

वे सवाल पूछते हैं, “आज देश की सबसे बड़ी आबादी का प्रदेश इतना हौसला भी नहीं रख पा रहा है कि उसके बच्चे बिना नकल के हाई स्कूल या इंटरमीडियट की परीक्षा पास कर पाएंगे ।”

ज़िम्मेदार कौन है ?

सीधा जवाब है कि वो सब जवाबदेह हैं जिन्होंने राजनीतिक दलों को ये यकीन दिलाया कि नकल करके पास युवा उस पार्टी को ही वोट देगा जो उसे अगली परीक्षा में भी नकल की छूट का वायदा करे। आज इस बात के बड़े बड़े दावे मिल जाएंगे कि देश के सबसे ज़्यादा सिविल सर्वन्ट्स उत्तर प्रदेश से चुनकर आते हैं।

परीक्षा केंद्र का दौरा करते उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री डॉ. दिनेश शर्मा।

पर ये दावा कितना खोखला और इस दावे के पीछे की हक़ीक़त कितनी काली है ये पूरा प्रदेश जानता है पर शायद कोई भी साहस नहीं जुटा पाता कह पाने का। बहुत बेचैन होने पर थोड़ी साफ़गोई से लोग वो एक लोकप्रिय भोजपुरी गाना दोहरा लेते हैं…

“अस्सीये से कइके बी ए बचवा हमार कंपटीशन देता…..”

जो सिविल सर्वन्ट्स बन जाते हैं उनकी गिनती तो सभी को याद है पर खेत- बाड़ी बेच कर सालों तक तैयारी करके परीक्षा देने और असफल होने वालों की संख्या पर किसी का न तो ध्यान जाता है और न ही कोई उनकी चर्चा करता है। ये वो लोग हैं जो कुल चयनित IPS /IAS की तुलना में सैकड़ों गुना या शायद हज़ारों गुना होते हैं ।

और मेरे खयाल से देश मे सिविल सर्विसेज सहित दूसरी परीक्षाओं में शामिल होने और सफल होने के अनुपात के मामले में शायद उत्तर प्रदेश की हालत सबसे ज़्यादा खस्ता रही है। मेरे इस कथन के पीछे फिलहाल मेरे पास कोई ठोस आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं ।

पर हाँ इतना ऑब्जर्वेशन ज़रूर है कि लगभग हर गाँव से बीसियों परीक्षार्थी हर साल के प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठते हैं और जिले में शायद कहीं किसी गाँव से किसी एक या दो का भी चयन होता है तो पूरा जिला/ जवार जान जाता है । और हज़ारों लोग जो असफल होते हैं उनकी कोई चर्चा नहीं होती उन्हें सिर्फ सांत्वना या उपहास का पात्र माना जाता है।

ये सिर्फ छात्रों की असफलता नहीं है

जबकि उनकी असफलता सिर्फ उनकी नहीं उस पूरे सिस्टम की है जिसने उन्हें न तो ठीक से पढ़ाया और न ही उनकी ठीक से स्कूली परीक्षा होने दी। और जब उन्हें प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी करनी पड़ी तो न सिर्फ उन्हें वो सारा स्कूली ज्ञान नए सिरे से , नई तरीके से पढ़ना पड़ा बल्कि कहीं ज़्यादा मेहनत और समर्पण के बाद भी रिज़ल्ट्स में वो फिसड्डी रहे।

क्योंकि व्यवस्था ने उन्हें, असंतुलित सिलेबस पढ़ाकर और नकल की आदत लगाकर उनकी नींव कमज़ोर कर दी थी। आगे चलकर जब प्रतियोगी परीक्षाओं के दौरान उन्हें अहसास होता है कि नींव कमज़ोर है तो वो समझ नहीं पाते कि पहले नींव मज़बूत करें या ईमारत बुलंद और इन दोनों ही विकल्पों में से कोई भी चुनने पर उनका नुकसान तय रहता है। समय, पैसे और श्रम का नुकसान और उसके बाद भी सफलता उनके लिए बाकियों की तुलना में कहीं ज़्यादा कठिन और कम रहती है।

हाईस्कूल पास करने की ‘असल’ उपलब्धि

आज भी उत्तर प्रदेश में एक “खास वर्ग” है जो बड़े गर्व के साथ कहता है कि “मैंने कल्याण सिंह के ज़माने में हाई स्कूल पास किया था” उत्तर प्रदेश से जुड़े लोग जानते हैं कि ‘उस’ ज़माने में हाई स्कूल पास करने वाले की असल उपलब्धि क्या है। अब फिर एक शुरुआत तो हुई है पर काश आने वाले समय में अगले सभी मुख्यमंत्रीयों के दौर में हाई स्कूल पास करने वाले विद्यार्थी इसी आत्मगौरव के साथ अपना हाईस्कूल पास करना दोहरा पाएं। तब सार्थक होगा सबसे ज़्यादा सिविल सर्वन्ट्स वाले प्रदेश होने का असल वैभव।

(इस पोस्ट के लेखक रणजीत सिंह युवा पत्रकार हैं। बहुत से मुद्दों पर बेबाक राय रखते हैं। ज़मीनी स्थितियों से दर्शकों को रूबरू कराना उनका पेशा भी है और पैशन भी।)

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