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शिक्षा विमर्शः मूल्यांकन के ‘जाल’ में उलझी पढ़ाई

पाबुला, तितली, गरासिया भाषा, बहुभाषिकता, एजुकेशन मिरर, बच्चों की भाषा, घर की भाषा


एक आधारभूत मान्यता है कि स्कूल के केंद्र में बच्चा होना चाहिए।

शिक्षा की एक आधारभूत मान्यता है कि स्कूल के केंद्र में बच्चा होना चाहिए। मगर स्कूलों में तो बच्चे की जगह पर मूल्यांकन केंद्र में है। कई तरह के मूल्यांकनों का डेविल डांस (दैत्य नृत्य) भयमुक्त वातावरण को मुँह चिढ़ा रहा है। बच्चों को डरा रहा है। कभी ‘असर की रिपोर्ट’ लोगों को चौंकाती है। तो कभी मूल्यांकन के बाकी तरीकों की चर्चा होती है। इसमें से हर महीने, छमाही और सालाना होने वाली परीक्षा भी शामिल है।

दिल्ली जैसे मेट्रो शहर के बड़े घरों में तो लोग ट्युटर को कहते हैं, “अरे! आप पड़ोस के फलां घर में भी पढ़ाने जाते हैं, लेकिन वहां मेरे बच्चे के बारे में मत बताइएगा कि इसके नंबर कम आए हैं।” इससे समझा जा सकता है कि मूल्यांकन का डर केवल बच्चों नहीं, अभिभावकों को भी होता है।
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मैं कभी-कभी सोचता हूँ, ” अरे! मेरा तो सपना है कि स्कूलों में भयमुक्त लेखन (Fear Free Writing Environment) का माहौल बनाया जाए। ताकि उनके लिए लिखना मस्ती, मौज और आनंद वाला काम बन जाए। लेकिन परीक्षाओं, मानक तरीके से लिखने के दुराग्रह और बच्चों की कॉपी में ढेर सारी ग़लती निकालने..सही तरीके से न पढ़ाने के कारण बच्चों को काफी परेशानी होती है।
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भाषा का स्तर बढ़ती कक्षा के साथ धीरे-धीरे बढ़ते चले जाने और पुरानी समस्याएं यथावत रह जाती हैं। इसके कारण बच्चों को भाषा शिक्षण की प्रक्रिया में उनको तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना करना पड़ता है। हर किसी के घर में शुद्ध हिंदी या स्कूल वाली हिंदी ही बोली जाती हो जरूरी तो नहीं। हिंदी की सबसे ख़ास बात है कि यह जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी जाती है। कह सकते हैं कि हिंदी में सही लिखने के लिए सही तरीके से उच्चारण के प्रशिक्षण की भी जरूरत है।
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शिक्षा क्षेत्र में प्रयोग
भारत में शिक्षा क्षेत्र में चल रहे प्रयोगों की भरमार है। मगर सफल प्रयोगों की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। इस देश में लोकजुंबिश परियोजना आई। भवन तो बने। लेकिन जिन भव्य सपनों का निर्माण होना था, वे आज भी खंडहरों की शक्ल में झांकते हैं। गाँव में बिल्डिंग तो बन गई, शौचालय भी बन गया। जहाँ, नहीं बने हैं। वहां गर्मी की छुट्टियों में बना देने की बात कही जा रही है।
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हालांकि उन्हीं गांवों में पर्याप्त शिक्षकों का पहुंचना बाकी है। सरकारी स्कूलों में एमडीएम और शिक्षा दोनों की गुणवत्ता संदिग्ध है। हाँ, कुछ स्कूलों में अच्छा एमडीएम बनता है। मगर बाकी स्कूलों में ऐसा क्यों नहीं होता…यह सवाल जरूर परेशान करता है।  सबसे ज़्यादा तकलीफ तो एमडीएम खाने के बाद बच्चों के बीमार होने और उनकी मौत की ख़बरें पढ़कर होती है।
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क्या चाहते हैं अभिभावक?
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यह देखकर लगता है कि देश को आतंकवाद से ज़्यादा बड़ा ख़तरा ऐसी नीतियों से है जो इसे सालों से खोखला बनाने का काम कर रही हैं। आज दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने एक दोस्त से अभिभावक की भूमिका के बारे में बात हो रही थी। तो उन्होंने कहा, “हर अभिभावक चाहता है कि उनके बच्चे का ओवरऑल विकास हो।” इसके साथ ही उन्होंने यह भी  बताया कि स्कूल में जो माहौल और अवसर बच्चों को मिलता है वह उनको घर पर दे पाना किसी भी अभिभावक के लिए संभव नहीं है। दिल्ली के कुछ स्कूलों में इस तरह की सुविधाएं हैं। जहां बच्चों के पास खेल के भी ढेर सारे विकल्प हैं। पढ़ाई के भी तमाम अवसर हैं…घर पर वह मिनिमम दो-तीन खेल खेल सकता है। जबकि स्कूल में उसके पास च्वाइस ज़्यादा होती है। च्वाइस वाली बात तो वाकई काबिल-ए-ग़ौर लगी।
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लेकिन उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि जिन अभिभावकों के पास ऐसे विकल्प नहीं है..वे अपने बच्चों के ऊपर अपना गुस्सा उतारते हैं। या उधर अपनी भड़ास निकालते हैं। जैसा कि हमने लोगों को कहते सुना होगा..किताब ख़रीदकर दे दी, कॉपी ला दी, कपड़े ख़रीद दिए…खर्चा दे रहे हैं…और क्या करें..इनके लिए। परीक्षा परिणाम गड़बड़ होने के बाद बच्चों को इस तरह की जो बातें सुनाई जाती हैं…ऐसा लगता है कि उनका इशारा इसी भड़ास की तरफ़ था। अगली बार बात होती है तो इस बारे में पूछते हैं।
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