शिक्षा विमर्शः बदलाव और ठहराव के चौराहे पर खड़े स्कूल

स्कूली बच्चों में सीखने की बहुत भूख है। उनको बस एक ऐसे शिक्षक का साथ चाहिए जो बच्चों को बच्चा समझता हो।
अक्सर हम सबसे ग़ौर करने वाली बात को अनदेखा करते हैं। यही बात स्कूलों के संदर्भ में भी लागू होती है। जब हम स्कूलों की बात करते हैं तो शायद भूल जाते हैं कि कोई भी स्कूल बच्चों के लिए ही है। स्कूल के केंद्र में बच्चे हैं। बच्चों का सीखना है। बच्चों की ख़ुशी है।
स्कूल आने वाले बच्चों के भविष्य की बुनियाद तैयार करना और उसे आने वाले भविष्य के लिए तैयार करना एक शिक्षक की सबसे अहम जिम्मेदारी है।
आज की पोस्ट में चर्चा स्कूल से जुड़े अनुभवों की जो स्कूली शिक्षा के अहम चुनौतियों को रेखांकित करते हैं। साथ ही उम्मीद की खिड़कियां भी खोलते हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में कुछ सालों के अनुभव से एक बात तो पानी की तरह साफ़ है कि बच्चों में सीखने की भूख है। वे बहुत कुछ जानना चाहते हैं। जो करते हैं, उसे दिखाना चाहते हैं। जो जानते हैं, उसे बताना चाहते हैं। वे पढ़ना चाहते हैं। मगर बहुत से बच्चों के सीखने की इच्छा उदासीन शिक्षकों के नज़रिये और कागजी कामों की भेंट चढ़ जाती है।
शिक्षक कहते हैं, “स्कूल विजिट के दौरान ज्यादातर अधिकारी यह नहीं पूछते कि पहली कक्षा में कैसी पढ़ाई हो रही है। उनके लिए क्या योजना बनाई जा रही है और उस पर कैसे काम किया जा रहा है। उनको तो बस सीसीई की डायरी से मतलब होता है।”
आदर्शवादी कल्पना
भविष्य बहुत ‘उज्वल’ है
अगर ऐसे ही बच्चों की पढ़ाई होती रही। तो भारत की प्राथमिक शिक्षा का भविष्य बहुत उज्वल है। उज्वल इस अर्थ में कि इस इस सफेद भविष्य में भी बदलाव और ठहराव के सारे रंग शामिल होंगे। बस कुछ जरूरी रंग हवा हो जाएंगे, जिनको चटख बनाने की उम्मीद एक शिक्षक से की जाती है। जिसकी अपेक्षा बच्चों को मिलने वाली शिक्षा से होती है।
ऐसी परिस्थितियों के बावजूद अभी भी उन शिक्षकों से उम्मीद है जो शिक्षा को आज भी एक मिशन की तरह लेते हैं। जहां बच्चों का सीखना और जीवन में आगे बढ़ना उनके लिए बाकी कामों से बहुत ज्यादा मायने रखता है। जिनके लिए बच्चों को पढ़ाने का काम बहुत महत्वपूर्ण काम है जो उनकी ज़िंदगी को सार्थकता देता। उनके स्कूल में होने को एक अर्थ देता है।
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