जब भी लोगों के बीच संवाद का अभाव, समन्वय की कमी, भेदभाव, विषमता और क्रूरता नज़र आती है तो लगता है कि तुम्हारी मौजूदगी जरूरी है। किसी क्रूर हत्यारे की गोलियों से तुम मरे नहीं हो, तुम आज भी ज़िंदा हो। ग़लत का प्रतिरोध करते हुए और सहज संवाद का मार्ग प्रशस्त करते हुए।
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बीबीसी हिंदी पर प्रकाशित एक रिपोर्ट में वरिष्ठ पत्रकार रेहान फजल लिखते हैं। “अगले दिन 31 जनवरी को महात्मा गांधी को अंतिम विदाई देने के लिए लाखों लोगों का सैलाब राजघाट पर उमड़ पड़ा था. जैसे ही गांधी की चिता को आग दी जा रही थी मनु ने अपने चेहरे को सरदार पटेल की गोद में रख कर फूट-फूट कर रोना शुरू कर दिया. कुछ क्षणों बाद जब उन्होंने अपनी निगाहे ऊपर उठाई तो उन्हें महसूस हुआ जैसे पटेल अचानक दस साल और बूढ़े दिखने लगे हों.”
बर्नाड शॉ ने गांधी की मौत पर कहा, ”यह दिखाता है कि अच्छा होना कितना ख़तरनाक होता है.”