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पाठ्यपुस्तकें इतनी महत्वपूर्ण क्यों हैं?

पाठ्यपुस्तक विवाद, नई किताबें, पाठ्यपुस्तकों पर राजनीति, हड़बड़ी का बदलाव

रिकॉर्ड दो महीनों में पहली से आठवीं तक की किताबों को बदलने की तैयारी पूरी कर ली गयी थी।


प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं, “भारतीय शिक्षण व्यवस्था में पाठ्यपुस्तक की एक अहम भूमिका है। पाठ्यपुस्तक ही वो धुरी है जिसके इर्द-गिर्द कक्षा में होने वाला शिक्षण घूमता है, वह आधार जिस पर परीक्षा ली जाती है। व एक ऐसा जरिया जिससे राज्य कक्षा में होने वाली शिक्षण प्रक्रिया पर नियंत्रण रखता है, पाठ्यपुस्तक ही तो है।”

पाठ्यपुस्तक कैसे महत्वपूर्ण बन गई?

पाठ्यपुस्तक विद्यार्थी के जीवन में कब और क्यों इतनी महत्वपूर्ण बन गई?

इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, “आधुनिक शिक्षा व्यवस्था का जन्म औपनिवेशिक परिस्थितियों में हुआ। इस सिलसिले में यदि आप 19वीं सदी की शिक्षा व्यवस्था के इतिहास को देखेंगे तो एक बड़ी बुनियादी बात पाएंगे कि उसमें पाठशालाएं शिक्षक के द्वारा ही संचालित की जाती थीं। पाठ्यक्रम व पाठ्यसामग्री भी छपी हुई नहीं थीं। पारम्परिक पाठ्यपुस्तक थी जो प्रायः स्थानीय जरूरतों की पूर्ति करती थी। एक स्थान में दी जाने वाली शिक्षा या पाठ्य सामग्री किसी दूसरे स्थान की शिक्षा से कुछ भिन्न या कुछ समान थी।”

भाषा व गणित शिक्षण

प्रो. कृष्ण कुमार आगे कहते हैं, “व्याकरण की शिक्षा या भाषा पढ़ाने के तरीके में तो कुछ समानताएं थीं लेकिन किस तरीके से गणित पढ़ाया जाएगा, इसको लेकर भिन्नताएं भी थीं। उस शिक्षा व्यवस्था का रूपांतर जब आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में हुआ, तो उस क्रम में, पाठ्यपुस्तक के माध्यम से ही एक तरह का नियंत्रण स्थापित हो सका। पाठ्यपुस्तक के माध्यम से ही स्वीकृत ज्ञान सम्प्रेषित हुआ – एक ऐसा ज्ञान जो शिक्षक के लिए बच्चों को देना आवश्यक था। इसके लिए शिक्षक का प्रशिक्षण आरम्भ हुआ। पाठ्यपुस्तक को पढ़ाना व उसके जरिए एक प्रकार का मानक स्थापित करना, औपनिवेशिक व्यवस्था में संभव हुआ और ये व्यवस्था काफी टिकाऊ सिद्ध हुई।”

शिक्षकों पर इसके असर के बारे में वे बताते हैं, “शिक्षक का खुद का बौद्धिक जीवन पहले कितना भी सीमित रहा हो, उसके शासकीय कर्मचारी बन जाने के बाद और भी संकीर्ण हो गया। अब शिक्षक मानो पाठ्यपुस्तक पढ़ाने के लिए ही नियुक्त होने लगा। इस तरह से पाठ्यपुस्तक की केंद्रीयता जो 19वीं सदी के उत्तरार्ध में बननी शुरू हुई, वह आज तक स्थिर है।”

(प्रो. कृष्ण कुमार का यह साक्षात्कार दिशा नवानी ने किया जो टाटा इस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज में शिक्षा विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। यह साक्षात्कार संदर्भ पत्रिका में प्रकाशित हुआ।)

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