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“शिक्षक प्रशिक्षण पर हैं, कष्ट के लिए खेद है”

सरकारी स्कूलों में तो वास्तविक स्थिति यह है कि शिक्षक प्रशिक्षण के नाम से घबराते हैं। कई स्कूलों में तो बाकायदा पारी बंधी हुई है कि इस बार प्रशिक्षण में जिसका टर्न है वही जाएगा। यानी ज्ञान और असुविधा का बराबर वितरण होना चाहिए। किसी एक को ही सारी सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। तो कुछ स्कूलों में सारे प्रशिक्षणों की जिम्मेदारी नये लोगों की होता है। तो कुछ स्कूलों में प्रधानाध्यापक और शिक्षक मिलकर तय कर लेते हैं कि फलां शिक्षक को ही प्रशिक्षण में भेजना है और कोई नहीं जाएगा। ऐसे में किसी शिक्षक का यह कहना कि मैं तो गणित या फलां विषय नहीं पढ़ाउंगा क्योंकि मुझे उस विषय का प्रशिक्षण नहीं मिला है कौतुक पैदा करता है।

भारत में शिक्षा का अधिकार क़ानून एक अप्रैल 2010 से लागू किया गया। इसे पाँच साल पूरे हो गए हैं। इसके तहत 6-14 साल तक की उम्र के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का प्रावधान किया गया है।

भारत में शिक्षा का अधिकार क़ानून एक अप्रैल 2010 से लागू किया गया।

हर किसी के काम करने का अपना तरीका होता है। कोई चीज़ों को समझकर ख़ुद से करना पसंद करता है। तो किसी को काम करने की पूरी प्रक्रिया के दौरान हर स्तर पर सपोर्ट की जरूरत होती है। तो किसी को सपोर्ट के साथ-साथ आज़ादी पसंद होती है। कोई शुरू से ही किसी काम को पूरी तेज़ी के साथ करना शुरू करता है और आगे जाकर थोड़ी सुस्ती के साथ काम करता है तो कोई धीमी शुरूआत करता है। मगर एक बार चीज़ों को समझ लेने के बाद फिर पीछे मुड़कर नहीं देखता है। किसी सरकारी स्कूल में शिक्षकों को अगर हम ग़ौर से काम करते हुए देखे तो उनकी सफलता और असफलता का कारण साफ़-साफ़ समझ में आता है। कुछ शिक्षकों की स्थिति ऐसी होती है कि आपने जितना काम साथ में किया उतना ही होता है। अगली विज़िट में जाकर अगर आप देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि गाड़ी को आपने जितना धक्का मारा था। वह तो वहीं पर अटकी हुई है।

सब चलता है वाली मानसिकता

ऐसे शिक्षक सपोर्ट-सपोर्ट कहते हैं जैसे पानी में डूब रहा आदमी मदद मदद चिल्लाता है। मगर मदद के लिए गुहार लगाने वाली आदमी की आवाज़ में जो सच्चाई होती है। वह सपोर्ट का हल्ला मचाने वाले शिक्षक की आवाज़ में नज़र नहीं आती। मजे की बात ये है कि उनको इस बात का अहसास भी नहीं होता कि कोई उनको ग़ौर से पढ़ रहा है। समझ रहा है। उनके व्यक्तित्व को समझ रहा है। उनको काम करने के लिए प्रेरित करने का रास्ता निकाल रहा है। ऐसे लोगों को कोई ऐसा काम सौंपना जहाँ सेल्फ मोटीवेशन या स्व-प्रेरणा की बहुत ज्यादा जरूरत हो ठीक नहीं होता। क्योंकि ऐसे शिक्षक शुरुआत में बहुत उत्साह के साथ आगे आते हैं, मगर काम की बढ़ती जिम्मेदारी देखकर पीछे हट जाते हैं।
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दिसंबर में शिक्षकों को जुलाई वाला काम करते देखकर हैरानी होती है। मगर साथ-साथ ही साथ यह बात समझ में आती है कि सरकारी सिस्टम में सब चलता है वाली मानसिकता कितनी गहरी है। विशेषकर उन स्कूलों में जो उपेक्षित स्कूल होते हैं। जहाँ शिक्षकों की कमी होती है। अधिकारियों का आना-जाना बहुत कम होता है। ऐसेस स्कूलों को शिक्षा व्यवस्था के अनौपचारिक सर्कल में समस्याग्रस्त स्कूल के रूप में जाना जाता है। वहां के बारे में में पड़ोस के स्कूल वालों को पता होता है कि वहां की क्या स्थिति है। मगर सटीक स्थिति का अंदाजा होता है, ऐसा बिल्कुल नहीं है। क्योंकि जो स्कूल वाकई में अच्छे हैं, उन स्कूलों के प्रधानाध्यापकों को भी अपने स्कूल के बारे में बिल्कुल ठीक-ठीक अंदाजा नहीं होता है। क्योंकि वे सरकार को तो आँकड़े भेजते हैं। मगर अपनी जरूरत के लिए आँकड़ों पर ग़ौर नहीं फरमाते और न ही उसका स्कूल की भावी प्रगति के लिए सकारात्मक इस्तेमाल करने के लिए कोई योजना बनाते हैं।

आँकड़ों का फेर और प्रशिक्षण की जरूरत

किसी स्कूल में काम करने वाले शिक्षकों का व्यक्तित्व, शिक्षा के प्रति नज़रिया और अपने काम के प्रति नज़रिया भी स्कूल में एक माहौल का निर्माण करता है। इसके कारण कोई-कोई स्कूल कम संसाधनों के बावजूद अच्छा प्रदर्शन करने की दिशा में आगे बढ़ता है। तो बाकी स्कूल संसाधनों की बहुतायत के बावजूद उस स्तर को हासिल करने में पीछे रह जाते हैं, जहाँ उनको होना चाहिए। किसी स्कूल में मौजूदा स्टाफ की संख्या से वहां होने वाले काम के बारे में कोई अनुमान लगाना बहुत ऊपरी तौर पर काम चलाऊ ढंग से सही हो सकता है।
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पर वास्तविक स्थिति काफी अलग भी हो सकती है। किसी स्कूल में चार स्टाफ है, मगर एक स्टाफ डेपूटेशन पर हो सकता है। किसी स्कूल में आठ-नौ का स्टाफ हो सकता है। मगर उसमें से दो-तीन ऐसे लोग भी हो सकते हैं। जिनके नाम पर कालांश तो हों, मगर उनको पढ़ाने का काम पसंद न आता हो।
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इसके विपरीत ऐसी स्थिति भी दिखायी देती है कि प्राथमिक स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक कहते हैं कि हमकों को गणित या अंग्रेजी का प्रशिक्षण नहीं मिला तो हम इस विषय को कैसे पढ़ा सकते हैं। जबकि साथी शिक्षकों और प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाने वाले बहुतायत शिक्षकों की समस्या अनावश्यक प्रशिक्षणों का सिलसिला होता है, जिसके कारण वे कभी-कभी महीने भर के लिए स्कूल से बाहर होते हैं। क्योंकि स्कूल में लंबी छुट्टियों के आसपास प्रशिक्षण होते हैं और इस बीच अगर उनकी कुछ छुट्टियां निजी तौर पर शामिल कर ली जाएं तो महीने भर के लिए वे स्कूल से बाहर होते हैं मगर कागज़ी तौर पर वे ऑन ड्युटी पर होते हैं। यहाँ बच्चों के लिए एक अदृश्य बोर्ड लगा होता है जिसे वे शायद कभी पढ़ या समझ पाते हों, “शिक्षक प्रशिक्षण पर हैं, कष्ट के लिए खेद है।”

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