हमारे लिए बच्चों के साथ प्रत्यक्ष रूप से काम करना एक तरह का अवसर है जहाँ सीखने की संभावनाओं के आसमान खुले होते हैं। हम उन क्षेत्रों की पहचान कर पाते हैं जहाँ पर बच्चे बेहतर कर रहे हैं। इसके साथ ही साथ उन क्षेत्रों की भी जहाँ बच्चों को सहयोग करने और ख़ास तरह की रणनीति बनाकर काम करने की जरूरत है।
‘स्केल’ पर काम करने के शोर ने बहुत सी चीज़ों को सुगम बनाया है तो बहुत सी ऐसी समस्याएं भी खड़ी की हैं जिनका स्केल बहुत बड़ा है।
‘बड़े स्केल का समाधान, बड़े स्केल की समस्या भी खड़ी करता है’
उदाहरण के तौर पर स्ट्रक्चर्ड पेडागॉजी को बड़े स्तर पर लागू करने के प्रयासों में क्रियान्वयन की समस्या और ऑन साइट सपोर्ट की अच्छी गुणवत्ता का न होना एक बड़ी समस्या बन गया है। इससे हमारे सवाल शिक्षक संदर्शिका के इस्तेमाल तक सीमित हो जाते हैं। शिक्षक संदर्शिका के इस्तेमाल की गुणवत्ता या संदर्शिका का कक्षा-कक्ष की शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में कैसे इस्तेमाल हो रहा है? यह सवाल ब्लॉक या जिला स्तर पर होने वाली बैठक में प्रमुखता के साथ निकलकर नहीं आ पाता है। इस तरह से संदर्शिका का इस्तेमाल केवल टिक मार्क एक्टिविटी में तब्दील हो जाती है, अगर इसके गुणवत्तापूर्ण इस्तेमाल पर ध्यान न दिया जाये।
ज़मीनी सच्चाई है अलग
बहुत से साथियों का अनुभव बताता है कि आज भी स्कूलों में बारहखड़ी और वर्णमाला को क्रमबद्ध तरीके से रटाने वाली कोशिश इन प्रयासों और निपुण भारत मिशन में भाषा शिक्षण की रणनीति में संतुलित पद्धति को अपनाने की अपेक्षाओं के बावजूद हो रहा है। लेखन की उपेक्षा का स्केल वाकई बहुत बड़ा है और इसको लेकर विशेष रणनीति बनाकर काम करने की आवश्यकता है। उदाहरण के तौर पर मौखिक भाषा विकास केवल शब्द भण्डार का हिस्सा बना है, बहुत विरले ही इसपर ऐसी गुणवत्ता का काम दिखाई देता है जो बच्चों को सुनकर समझने और समझकर जवाब देने की क्षमताओं के विकास की तरफ लेकर जाता हो, यह बात भी सच है जहाँ पर इस तरीके से काम हो रहा है वहाँ के परिणाम बेहद अलग हैं।
शिक्षण-अधिगम की निरंतरता है जरूरी
आखिर में एक ग़ौर करने की बात कि अगर परंपरागत तरीके से भी निरंतरता के साथ बच्चों को पढ़ाया जाए और उनको अभ्यास करने के पर्याप्त मौके दिअए जाएं तो भी बच्चे पढ़ना सीख जाते हैं। यह भी 100 फीसदी सच है। इस तरीके से सीखने के बाद पेश आने वाली चुनौतियों और उनके समाधान पर अलग से बात की जा सकती है। यहाँ बस केवल इतना संकेत करना है कि छोटे बच्चों के साथ काम करने के लिए निरंतरता बेहद जरूरी है। अगर शिक्षण कार्य की निरंतरता नहीं है तो पढ़ाने की तरीका चाहें वर्ण पद्धति वाला हो, शब्द पद्धति वाला हो, संतुलित भाषा पद्धति वाला हो या समग्र भाषा पद्धति वाला हो, बच्चों के सीखने पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता है। आप भी अपने विचार और अनुभव साझा कर सकते हैं।
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