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क्या सरकारी शिक्षा का संकट ‘अंग्रेजी मीडियम’ से दूर हो सकता है ?

20190426_142411255318242474259775.jpgइन दिनों एक बार फिर से अंग्रेजी मीडियम की चर्चा है। जब भी सरकारी शिक्षा के संकट की बात होती है तो समाधान के रूप में अंग्रेजी मीडियम सामने आ जाता है। क्या सरकारी शिक्षा का संकट अंग्रेजी मीडियम की वजह से है ? क्या स्कूलों को अंग्रेजी मीडियम करने से सरकारी शिक्षा का संकट खत्म हो जाएगा ? आप कल्पना कीजिए कि अचानक लोगों की सरकारी स्कूलों के प्रति धारणा बदल जाए और बहुत बड़ी तादाद में बच्चे सरकारी स्कूलों की ओर आने लगें तो क्या शिक्षकों, प्रधानाचार्यों के पद भर जायेंगे ? क्या बिल्डिंग, फर्नीचर, शौचालयों की स्थिति बदल जाएगी ?

पढ़ाने का माध्यम बदलेगा, लेकिन संसाधनों की उपलब्धता?

आप अंग्रेजी मीडियम तो कर देंगे मगर संसाधनों का क्या होगा ? क्या संसाधनहीन स्कूलों में बच्चे आने लगेंगे ? कुछ लोग तर्क देते हैं कि जब सभी के बच्चे अंग्रेजी मीडियम में पढ़ रहे हैं तो गरीबों के बच्चे अंग्रेजी मीडियम में क्यों न पढ़ें ? सवाल बड़ा वाजिब प्रतीत होता है। मगर पहले पूछना होगा कि जिस देश के पास अपनी समृद्ध भाषाएं हैं, उन्हें विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाई की जरूरत क्यों है? क्या अगर सभी लोग घूस से काम चला रहे हैं तो जहां घूस नहीं चल रही, वहां भी उसे लागू कर देना चाहिए ?

सवाल यह है कि स्कूली शिक्षा सीखने या समझने के लिए होती है या आपने किस मीडियम से पढ़ा यह महत्वपूर्ण होता है ? सामान्य सी बात है, बच्चा उस भाषा में विषयों को ज्यादा अच्छे से समझेगा जो उसके आस-पास बोली जाती है, जिससे उसका परिचय है। मध्यवर्गीय बच्चों के आस-पास अंग्रेजी के कुछ संदर्भ होते हैं, मगर गांवों में रहने वाले बच्चों के पास तो कोई संदर्भ नहीं होते। ऐसे में क्या उनके लिए पढ़ाई नीरस अथवा बोझिल नहीं हो जाएगी ? वे जितना पढ़ लेते थे, उससे भी वंचित तो नहीं हो जाएंगे ? कहीं वे पढ़ने के बजाय पढ़ाई से दूर तो नहीं भागने लगेंगे ?

अंग्रेजी मीडियम के फ़ायदे और नुकसान का विश्लेषण

उत्तराखंड के विद्यालयों में विगत वर्षों से सरकारी स्कूलों में विज्ञान विषय को अंग्रेजी में पढ़ाया जा रहा है। इसका सर्वे करके भी हम अंग्रेजी मीडियम के परिणाम को समझ सकते हैं ? क्या अब अंग्रेजी में बच्चों को विज्ञान अधिक आसानी से समझ में आ रहा है ? बच्चों का पहले की अपेक्षा प्रदर्शन अब कैसा है ? क्या बच्चे विज्ञान की अवधारणाओं को अंग्रेजी में बताने लगे हैं ? विज्ञान शिक्षकों की क्या राय है ?

हम सभी को अंग्रेजी को अब एक भारतीय भाषा के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए। उससे मुक्त हम नहीं हो सकते। मगर इस स्वीकारोक्ति के साथ हमारे भीतर अब भाषाई सहजता भी आ जानी चाहिए। प्रस्तावित नई शिक्षा नीति द्विभाषिकता की बात करती है। अब हम लोगों को भी स्कूलों में बच्चों को उस भाषा में पढ़ने की छूट देनी चाहिए, जिसमें वे सहज हों। यानी उनको अंग्रेजी में विषय समझ में आता है तो ठीक वरना भूगोल के हिसाब से हिन्दी, तमिल, बंगाली, उड़िया जिसमें समझ आये, वह ठीक। मूल मसला तो विषयों को समझने का है।

अंग्रेजी मीडियम की समस्या दरअसल औपनिवेशिक मानसिकता की समस्या है, जो अभी भी उन सब देशों में है जो गरीब हैं तथा कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे। दुनिया के विकसित देश अपनी भाषाओं में पढ़ते-पढ़ाते हैं, फिर वह जापान, जर्मनी, रूस, चीन आदि कोई भी हो। हम विकसित देश अपनी भाषाओं में पढ़कर ही बन सकते हैं। तब हम मौलिक रूप से अथवा अपनी तरह से सोचना शुरू कर पायेंगे।

तो मूल सवाल की ओर लौटते हैं। सरकारी स्कूलों का मूल संकट संसाधन हैं, न कि मीडियम। अंग्रेजी को एक विषय के रूप में खूब अच्छे से पढ़ाइये। यह जरूरी है। मगर सरकारी स्कूलों को अंग्रेजी मीडियम करने के बजाय निजी स्कूलों समेत सभी स्कूलों को नई शिक्षा नीति की मंशा के अनुरूप बाई-लिंग्विल बना दीजिए। बच्चों को उस भाषा में पढ़ाने की जिद करना जिसे वे नहीं समझते या सहज नहीं हैं, क्या उनके साथ ज्यादती नहीं है ?

fb_img_15883623957122443867190587966547.jpg(दिनेश कर्नाटक, एक शिक्षक के रूप में उत्तराखंड में कार्यरत हैं। शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर निरंतर चिंतन और लेखन के माध्यम सेसक्रिय हैं। शिक्षा में माध्यम के चुनाव की विसंगतियों को आपने इस लेख में रेखाकिंत करने का प्रयास किया है।)

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7 Comments on क्या सरकारी शिक्षा का संकट ‘अंग्रेजी मीडियम’ से दूर हो सकता है ?

  1. Anonymous // July 21, 2020 at 9:19 am //

    सहमत

  2. Virjesh Singh // July 19, 2020 at 11:25 pm //

    किसी के विचारों पर व्यक्तिगत होने की जरूरत नहीं है। अभिभावक तो बच्चों को विकल्प देने की स्थिति में हैं तो कर सकते हैं। लेकिन जिन बच्चों के पास केवल सरकारी स्कूलों के चुनाव का ही विकल्प है, उनके लिए क्या समाधान सोचा या किया जा रहा है। यह सवाल भी प्रासंगिक है।

  3. Durga thakre // July 19, 2020 at 3:58 pm //

    बिल्कुल सटीक विश्लेषण सर जी
    हमें अपनी और समाज के लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना ही होगा

  4. Meenakshi Silswal // July 19, 2020 at 12:49 pm //

    बहुत ही वाजिब प्रश्न उठाया है दिनेश जी ने। ग्रामीण परिवेश के विद्यालय का बच्चा बचपन से ऐसे माहौल में जी रहा है जहाँ उसे हिंदी सुनने को भी स्कूल में मिलती है। उसको उसके चारों तरफ उसकी मातृभाषा के अलावा हिंदी बोलने वाले लोग भी बहुत कम ही मिलते है, अंग्रेजी बोलने वाला दूर-दूर तक कोई नही होता और उस बच्चे को विज्ञान जैसे महत्वपूर्ण विषय की किताब अंग्रेजी में पकड़ा दी जाती है तो वास्तव में उस बच्चे की मनोदशा क्या होती होगी क्या कोई समझ सकता है। दूसरा जो अध्यापक उसे उस अंग्रेजी की विज्ञान की किताब को पढ़ाने के लिए नियुक्त है तो क्या उसकी भी अंग्रेजी में इतनी अच्छी पकड़ है कि वो बच्चे को विज्ञान अंग्रेजी में पढ़ा और समझा सकें। पिछले दो वर्ष से विज्ञान के अंग्रेजी में होने के कारण बच्चो के अंदर विज्ञान के प्रति एक जो रुचि दिखाई देती थी वह अब नही दिखाई दे रही है। पहले कही सारे बच्चे स्वयं विज्ञान की किताब पढ़ कर विद्यालय में अनेक प्रश्न करके थे और उनके प्रश्नों से लगता था बच्चे विज्ञान के रहस्यों को जानने के लिए कितने उत्सुक है और आज बच्चे विज्ञान की किताब को पढ़कर पूछते है इसका हिंदी अनुवाद क्या होगा ?

  5. U.C.Gairola // July 19, 2020 at 9:40 am //

    सहमत ।

  6. Bhaskar Joshi // July 19, 2020 at 8:54 am //

    हर व्यक्ति बस लिखता ही रहता है या कहता ही रहता है दुसरो की मानसिकता पर प्रश्न उठाता है स्वयं की मानसिकता नहीं बदलता क्या लेखक के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं ?
    या फिर भी अपने पाल्यो को अंग्रेजी मीडियम में नहीं पढ़ाना चाहते हैं ?

    हम बदलेंगे तो जग बदलेगा ।

  7. nirmalneoliya // July 19, 2020 at 7:23 am //

    सही बात रखी है दिनेश जी ने। असल में भारतीय शिक्षा में इस पर विचार तो हुआ है पर व्यवस्था द्वारा कोई सकारात्मक क़दम नहीं उठाया गया।

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