लिखना एक तरह से बातचीत है कैसे?
इस सवाल का जवाब प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार अपनी पुस्तक बच्चों की भाषा और अध्यापक में देते हैं। वे कहते हैं, “लिखना एक तरह की बातचीत ही है। लिखते वक़्त हम किसी से संवाद कर रहे होते हैं, हालांकि वह व्यक्ति हमारे सामने नहीं होता है। बहुत सी बातें हम किसी सूचना, विचार या याद को सुरक्षित रखने के लिए लिखते हैं। यदि मैं अपने आज के अनुभव को एक डायरी में लिखूं तो मैं इन अनुभवों को किसी और दिन पढ़ने की आशा में सुरक्षित रख सकूंगा।”
कक्षा 6 में पढ़ने वाले बच्चों के साथ भाषा के ऊपर बातचीत हो रही थी। इसकी शुरुआत एक सवाल से हुई कि इंसानों और जानवरों की बातचीत में क्या फर्क है? एक बच्चे ने जवाब दिया कि इंसानों के पास भाषा होती है। जबकि पशुओं के पास आवाज़ों के संकेत होते हैं। जिससे वे अपनी बात एक-दूसरे तक पहुंचाते हैं। भाषा का जिक्र आने के बाद आगे की बातचीत आसान हो गई। इस बातचीत का माध्यम बनी थी, बच्चों की भाषा और अध्यापक। भाषा के बारे में ढंग से सोचने-विचारने और इसे समझने की भूमिका बनाने की दृष्टि से यह एक अद्भुत किताब है।
भाषा के मायने
इसकी सबसे ख़ास बात है कि इसमें लिखी बातों को आप भाषा के कालांश में, लायब्रेरी के कालांश में जीवंत रूप से घटित होता हुआ देख सकतें हैं। ज़मीनी अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में इस किताब को देखने के बाद इसकी अहमियत और ज्यादा बढ़ जाती है। भाषा माने क्या? इस शीर्षक के तहत लिखे आलेख में कृष्ण कुमार कहते हैं, “शिशु के व्यक्तित्व और उसकी क्षमताओं के विकास को आकार देने में भाषा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक सूक्ष्म किंतु मजबूत ताकत की तरह भाषा संसार के प्रत्येक बच्चे के दृष्टिकोण, उसकी रुचियों, क्षमताओं, यहां तक की मूल्यों और मनोवृत्तियों को भी आकार देती है।”
वे आगे लिखते हैं, “दुनिया का हर बच्चा- चाहे उसकी मातृभाषा कोई भी हो, भाषा का इस्तेमाल कुछ खास उद्देश्यों के लिए करता है। एक बड़ा उद्देश्य है दुनिया को समझना, और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भाषा एक बढ़िया औजार का काम करती है।” भाषा का करने के साथ गहरा रिश्ता है। इसी सिलसिले में बच्चों से बात हुई कि खेती पर काम के लिए जाते समय महिलाएं आपस में क्या बातचीत करती हैं? या बाकी लोग क्या बात करते हैं? छठीं क्लास के बच्चे इस सवाल से अपने अनुभवों को याद करके बता रहे थे, “वे आपस में घरेलू चीज़ों के बारे में बात करती हैं। आसपास के लोगों के बारे में बात करती हैं। अपने-अपने घर की बात करती हैं। अनाज के दाम और मजदूरी की चर्चा होती है। उर्वरक की बात होती है। सिंचाई की बात होती है। फसलों के पकने वाले टाइम कटाई की बात होती है।”
शब्दों में सुरक्षित रहते हैं हमारे अनुभव
इसी दौरान एक पंक्ति आई, “कोई अनुभव जब पूरा हो चुका होता है, उसके बाद भी वह शब्दों के जरिये उपलब्ध रहता है।” इस वाक्य के ऊपर बच्चों से बात हुई कि अभी थोड़ी देर पहले हम सबने मिठाई खाई थी। अभी मिठाई तो खत्म हो गई है। लेकिन उसकी मिठास। मिठाई बांटने वाले बच्चे। कितने टुकड़े मिठाई के खाये। किस दिन मिठाई खाई? उसका स्वाद कैसा लगा, जैसी बहुत सारी बातें हमारे मन में हैं। ऐसा इसी कारण से है क्योंकि हमारे पास अपने अनुभवों को याद रखने के लिए ऐसे शब्दों का भंडार है, जो उनको संजोने में मदद करता है। इसी कारण से हम अपने अनुभव किसी को सुना पाते हैं। किसी के साथ साझा कर पाते हैं।
आख़िर में फिर से पुराने सवाल पर लौटते हैं कि लिखना बातचीत कैसे है। बहुत से लेखकों को मैंने करीब से देखा है जो बोलते हुए लिखते हैं। उनका लिखना एक तरह का संवाद ही है जो बाकी लोगों तक अपनी बाात पहुंचाने का जरिया है ताकि वे जो कहना चाहते है ठीक-ठीक और पूरे प्रभाव के साथ सामने वाले तक पहुंच पाये। लिखना एक तरीके से बातचीत करना है, इस बात ने लिखने की प्रक्रिया को बहुत ज्यादा मुश्किल और मशीनी मानने वाले बोझ से मुक्त किया। इसके लिए इस किताब के लेखक और शिक्षाविद् प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार का शुक्रिया अदा किया जा सकता है।
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