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भारत में पूर्व-प्राथमिक शिक्षाः आंगनबाड़ी केंद्रों में पढ़ाई क्यों नहीं होती?

भारत में शिक्षा, पूर्व-प्राथमिक शिक्षा, आंगनबाड़ी केंद्र की भूमिका

एक आंनबाड़ी केंद्र में खेलते बच्चे।

पहली कक्षा में प्रवेश के पहले बच्चों का रुझान पढ़ाई-लिखाई के लिए होना जरूरी माना जाता है। इसी उद्देश्य से भारत में आंगनबाड़ी केंद्रों की स्थापना की गई थी ताकि बच्चों को कुपोषण की समस्या से निपटने के साथ-साथ उनको पूर्व-प्राथमिक शिक्षा भी मुहैया कराई जा सकेगी।

लेकिन ज़मीनी हालात तो कुछ और ही कहानी कहते हैं। देश के चुनिंदा राज्यों के आंगनबाड़ी केंद्रों में आपको ऐसे शिक्षक मिलेंगे। बाकी आंगनबाड़ी केंद्रों का काम केवल वहां आने वाली सामग्री बच्चों के बीच वितरित करना और उनको खेलने की सामग्री मुहैया कराने तक सीमित है।

जिन स्कूलों में आंकनबाड़ी केंद्र सरकारी स्कूल की बाउंड्री के भीतर हैं, वहां की स्थिति बाकी केंद्रो से थोड़ा बेहतर होती है। क्योंकि यहां बच्चों को पूरी आज़ादी होती है कि अगर वे पहली कक्षा में बैठना चाहें तो बैठ सकते हैं। छोटे बच्चों को मना नहीं किया जाता है। इसके अलावा वे बाकी बच्चों को देखते हुए, बहुत सारी बातें सहज ही सीख लेते हैं। इसके अलावा स्कूल के साथ उनका एक सहज रिश्ता बन जाता है।

असर रिपोर्ट का असर 

हर साल भारत में सरकारी स्कूलों की स्थिति पर सालाना आने वाली “प्रथम” की रिपोर्ट पर काफी गर्मा-गर्म बहस होती है। इसे लेकर सरकारी स्कूल के अध्यापकों की रोषपूर्ण प्रतिक्रिया काबिल-ए-गौर होती है। तो वहीं सरकार का प्राथमिक शिक्षा के ऊपर खर्च किया जाने वाला बजट भी ध्यान खींचता है।

इन सारी बातों व बहसों के मूल में जाकर पड़ताल करने की जरूरत है ताकि शिक्षा के गिरते स्तर के वास्तविक कारण को खोजा जा सके। और इस बात को समझा जा सके कि आखिर हमारे गांव के स्कूलों की ऐसी हालत क्यों है?

जिसके कारण वहां पांचवी के बच्चे दूसरी कक्षा की हिंदी की किताबें नहीं पढ़ पा रहे हैं या गणित के सवाल हल नहीं कर पा रहे हैं। सारे बच्चों को कक्षा के अनुरूप दक्षताएं हासिल हो जाएंगी, भारत में यह सुनिश्चित कर पाने का लक्ष्य अभी दूर है।

बच्चों की बनाई तस्वीर।

गांव के स्कूलों की स्थिति

स्कूल एक ऐसी व्यवस्था है जो व्यक्तियों के माध्यम से बच्चों के लिए संचालित होती है। यह शिक्षा व्यवस्था के नियमों के तहत काम करती है। इसलिए शिक्षा की समस्याओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने और उसी दायरे में समाधान खोजने की कोशिश करने की जरूरत है। तात्कालिक समाधान की गुंजाइश प्रशासनिक मामलों में तो हो सकती है, लेकिन बाकी शैक्षिक पहलुओं को बेहतर बनाने के लिए समय लगता है, इस बात को भी हमें समझने की कोशिश करनी चाहिए।

खैर भारत में गांव के सभी स्कूलों की स्थिति के बारे में असर रिपोर्ट कोई बात सटीक तौर पर नहीं कहती है। यह बात भी हमें समझनी चाहिए। इसलिए इसके निष्कर्षों का सभी स्कूलों के लिए सामान्यीकरण कर लेना उनके साथ अन्याय करना होगा। शिक्षकों की कोशिशों को कमतर करके देखना होगा। एक बात यह भी है कि कई बार इस तरह के सर्वेक्षण आपाधापी में किए जाते हैं। इस बात को भी हम नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं।

सरकारी और निजी स्कूल का अंतर 

हमारे आसपास सरकारी व निजी दो तरह के स्कूल दिखाई देते हैं। सरकारी स्कूलों में पहली क्लॉस से पढ़ाई शुरू होती है। निजी स्कूलों में लोअर किंडर गार्टेन (केजी) , केजी से यूकेजी तक का सफर तय करके बच्चा पहली में प्रवेश करता है। इस दौरान उसकी छः साल की उम्र भी पूरी हो जाती है।

दूसरी तरफ सरकारी स्कूल के बच्चों से अपेक्षा की जाती है कि आंगनबाड़ी में उन्होनें शुरुआती तैयारी कर ली होगी। अगर आदिवासी अंचल में वास्तविक स्थिति की बात करें तो पहली कक्षा के पहले की स्थिति कमोबेश ढाक के तीन पात जैसी होती है। बहुत कम बच्चे इन आंगनबाड़ी केंद्रों में पढ़ने के मकसद से आते हैं। कुछ साल पहले राजस्थान सरकार ने आंगनबाड़ी में पूर्व-प्राथमिक शिक्षकों की नियुक्ति की है। इससे कम से कम सरकार ने माना तो कि आंगनवाणी में बच्चों की शिक्षा के ऊपर भी ध्यान देने की जरूरत है।

पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की स्थिति

बच्चों को ज्ञान निर्माण के कौशल विकास में पोषण की “बुनियादी खुराक” तीन साल की उम्र से छः साल तक मिलनी चाहिए। इसके अभाव में सरकारी व निजी स्कूलों की स्थिति को बेहतर ढंग से समझने में अड़चन आ जाती है। शिक्षा के शुरुआत की नींव से अगर हम सोचना शुरू करें तो पाते हैं कि तीन सालों का फासला तमाम स्थितियों के लिए निर्णायक कारण बन जाता है। मूल कारण की उपेक्षा करके समस्या को समझने और उसके समाधान के लिए होने वाली तमाम बहसों व आलोचनाओं से एक खास एंगल गायब हो जाता है।

अगर हम इस एंगल को ध्यान में रखकर सोचतें हैं तो भेदभाव की साफ तस्वीर नजर आती है। जो जाने-अन्जाने सरकारी स्कूल जाने वाले बच्चों के साथ हो रहा है। सरकारी व निजी स्कूलों का तुलनात्मक विश्लेषण करते हैं तो कुछ खास तथ्य निकलकर सामने आते हैं। मसलन सरकारी स्कूल में आने वाले बच्चे व निजी स्कूल में आने वाले बच्चे की स्कूलिंग यीयर्स के बीच न्यूनतम दो-तीन व अधिकतम पांच साल का फासला होता है।

पूर्व-प्राथमिक शिक्षा में भेदभाव

अगर उम्र को दरकिनार करके सीखने के स्तर के आधार पर कक्षाओं में प्रवेश देने की व्यावहारिक स्थिति को ध्यान में रखा जाय़। तो तीन साल की स्कूलिंग और बिना किसी स्कूलिंग के पहली से शुरूआत करने वाले बच्चों के सीखने के स्तर में अंतर तो होता है। इसके अलावा पाठ को समझने की गति व लेखन कौशल के विकास में भी स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ता है। जिसको नजर अंदाज करके हम प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाने की दिशा में समुचित प्रयास नहीं किए जा सकते। इसकी गंभीरता वर्तमान में भी दिखाई पड़ती है।

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