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गलत ख़बरों से सुर्ख़ियों में स्कूल….

बिहार के “छपरा” ज़िले के एक सरकारी स्कूल में विषाक्त भोजन खाने के बाद तबियत बिगड़ने लगी तो उनको अस्पताल में भर्ती कराया गया. अब तक 23 बच्चों की मौत हो गई है. बाकी बच्चे अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे हैं.

शिक्षा और भोजन की गुणवत्ता

सरकार की मध्याह्न भोजन या एमडीएम के तहत बच्चों को स्कूल में भोजन कराने की व्यवस्था है. लेकिन हैरानी की बात है कि शिक्षा के गुणवत्ता की तरह से सरकार भोजन की गुणवत्ता के सवाल से लगातार मुंह मोड़ती रही है. अगर शिक्षा और भोजन के गुणवत्ता की गारंटी नहीं देते तो उनके नाम पर बनने वाले क़ानून तो धोखा मात्र हैं. जिनको जमीनी स्तर पर लागू करने के दौरान तमाम तरह की कमियों के साथ छोड़ दिया जाता है.

शिक्षा का अधिकार क़ानून लागू होने के बाद 6 से 14 साल तक के बच्चे को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का हक़ है. इससे वंचित करना उसके मानवाधिकार के हनन की श्रेणी में आता है. लेकिन आजकल स्कूल शिक्षा से इतर कार्यों के लिए सुर्ख़ियों में नज़र आते हैं. शिक्षा की गुणवत्ता के ऊपर कोई बात नहीं होती. दिल्ली के अख़बार में पार्टी प्रायोजित सर्वे में कहा गया था कि सरकारी स्कूल के बच्चों की स्थिति बहुत ख़राब है. सातवीं के बच्चों को पाठ पढ़ना और अपना नाम लिखना तक नहीं आता.

स्कूलों की नकारात्मक छवि 

अख़बार में ख़बरें छप रही हैं कि बच्ची ने प्रवेश तो ले लिया है लेकिन उसके पास किराया देने तक के पैसे नहीं है. इसके साथ-साथ एक ख़बर छपी थी कि लड़की के साथ स्कूल के शिक्षकों ने दुर्व्यवहार किया और बच्ची ने घर पर आकर बताया. स्कूल के प्रधानाध्यापक इस बात से इंकार करते रहे, लेकिन बाद में मामला पुलिस तक पहुंचा. इस तरह की चर्चाओं से पता चलता है कि स्कूलों के प्रति लोगों के परंपरागत रवैये में कोई अंतर नहीं आया है. लोग अभी भी स्कूलों की संपत्ति को अपनी संपत्ति समझते हैं. वहां के संसाधनों में कमीशन खाते हैं. पढ़ाई से ज्यादा राजनीति में दिलचस्पी लेते हैं.

ऐसे माहौल में जो शिक्षक वाकई काम करना चाहते हैं, उनको काफी दिक्कत होती है. देश भर के शिक्षकों से पूछना चाहिए कि वे कैसे ऐसे माहौल में काम कर रहे हैं. शिक्षक तो आदेशों का पालन करने वाली गुड़िया बनकर रह गए हैं. जो सरकार के आदेशों पर नाचते हैं. उनको काम करने की जिम्मेदारी दी गई है. सोचने का काम उनसे छीन लिया गया है. सोचने के लिए अलग संस्थाएं बनाई गई हैं. जो शिक्षा के बारे में अच्छा-अच्छा सोचती हैं. जिसे ज़मीनी स्तर पर उतनी अच्छाई से लागू करना कठिन होता है. जितनी अच्छाई से योजनाओं के बारे में सोचा गया था. स्कूल की परिभाषा बदल गई है. विशेषकर प्राथमिक स्कूलों की….वे सरकार के लिए आंकड़े बटोरने का केंद्र बनकर रह गए हैं.

डेटा कलेक्शन एजेंसी बनते स्कूल

सरकार को लगता है कि शिक्षकों की विश्वसनीयता के कारण उनको सही आंकड़ मिल जाएंगे. लेकिन शिक्षकों का यही काम लोगों के बीच उनके भरोसे को उठा रहा है. उनकी साख को बट्टा लगा रहा है. आज स्कूल में बच्चा केवल पढ़ने के लिए नहीं आता. वह सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए आता है. दोपहर का भोजन खाने के लिए आता है. बहुत सारे स्कूलों में छुट्टी के बाद बच्चे खाना खाने के लिए अपने घर चले जाते हैं. वे बाकी बच्चों के साथ खाना बेठकर खा सकते हैं, लेकिन उसके लिए शिक्षकों को उनके साथ बैठकर खाना होगा. लेकिन बच्चों के साथ घुलने-मिलने में कुछ शिक्षकों को अपना सम्मान खाने का डर होता है. उनको लगता है कि बच्चे अग उनसे खुल गए तो फिर वे डरेंगे नहीं और डरेंगे नही तो पढ़ेंगे नहीं, यह बात शिक्षकों के मन में बहुत गहराई से दबी बैठी है.

स्कूलों में भयमुक्त वातावरण होना चाहिए. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा (एनसीएफ) के अनुसार प्राथमिक स्कूलों में भयमुक्त वातावरण बनाना बहुत जरुरी है. जहां बच्चों की खाने से मौत हो रही है, वहां भयमुक्त माहौल बच्चों को मिलने की बात…इस सिद्धांत को अव्यावहारिक और कोरा बनाती है. छोटी-छोटी बात पर बच्चों को झिड़कने वाले माता-पिता, अध्यापकों के सही व्यवहार के लिए कैसे कहेंगे? अगर कुछ अभिभावक जागरुक हैं तो अपनी बात सामने रखते हैं. स्कूल में स्कूल मैनेजमेंट कमेटी होती है. जिसका प्रमुख किसी बच्चे का अभिभावक होता है. उसको स्कूल की उपस्थिति देखने और खाने का निरीक्षण करने का अधिकार है.

ज़मीनी स्तर के काम से बदलेगी तस्वीर

लेकिन स्कूल की तरफ कौन झांकता है….अगर बच्चों से प्रेम न हो. ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिला है, जो स्कूल में आते हैं और बच्चों के बारे में जानकारी लेते हैं. कुछ जगहों पर तो गांव और स्कूल के बीच तकरार सी होती है. दीवारों पर गालियां लिखी जाती हैं. लड़कियों को गांव के लड़को द्वारा परेशान किया जाता है. तमाम तरह की दिक्कतें और परेशानिया उठाकर वे पढ़ाई के लिए आगे आती है. शिक्षा के सवाल को जमीन पर बैठकर हल करना पड़ेगा. ऊपर से आदेश देकर और जांच करवाकर स्थिति नहीं बदलने वाली है. सारा मामला सोच का है. संवेदनशीलता का है. बदलाव के लिए वक़्त लगने वाला है और हमारे पास धैर्य का घोर अभाव है.

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